समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन सिर्फ दिमाग से हुआ दिल से नहीं

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच बिहार जैसा गठबंधन नहीं हुआ, जिसमें दिल और दिमाग दोनों मिले थे। बल्कि जो गठबंधन हुआ उसमें सिर्फ दिमाग का इस्तेमाल करके सीटों का बंटवारा किया गया है। इसलिए जमीन पर इसके बिहार जैसे अमल पर खुद कांग्रेसी भी आशंका जता रहे हैं। उधर भाजपा के रणनीतिकारों ने भी पर्दे के पीछे भरपूर कोशिश की कि उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा सपा-कांग्रेस-रालोद का महागठबंधन न बने। आखिर में कांग्रेस के सुपर रणनीतिकार अहमद पटेल ने सारी कमान अपने हाथ में लेकर सीट बंटवारा करवा ही दिया। फिर भी रालोद इससे बाहर रह गया।
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बताया जाता है कि महागठबंधन रोकने के लिए भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले रालोद को गठबंधन के दायरे से बाहर निकलवाया, जिससे कांग्रेस का दबाव कमजोर हुआ और जब शनिवार को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कांग्रेस के दूतों प्रशांत किशोर और धीरज श्रीवास्तव को बैरंग लौटाया तो गठबंधन टूटने की इबारत लिख गई। इसे लेकर कांग्रेस कार्यकर्ता तो खुश थे, लेकिन शीर्ष नेतृत्व और उन रणनीतिकारों के चेहरों पर मायूसी छा गई, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में संघर्ष और मेहनत की बजाय सपा-कांग्रेस गठबंधन की शार्टकट लाइन ली थी। 

जबकि कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद, प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर, चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष संजय सिंह समेत कई नेता जिस तरह सपा के सामने झुककर गठबंधन की बात हो रही थी, उससे सहमत नहीं थे। लेकिन सारी कमान राहुल और प्रियंका के हाथों में थी इसलिए कोई कुछ बोल नहीं रहा था।

‘अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव के तेवर बदल गए’

एक प्रमुख कांग्रेसी नेता के मुताबिक चुनाव निशान पाने और पार्टी पर अधिकार हो जाने के बाद अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव समेत सपा नेताओं के तेवर ही बदल गए थे। यहां तक कि बुधवार को रालोद नेता जयंत चौधरी की मौजूदगी में तमाम कोशिशों के बावजूद प्रियंका गांधी अखिलेश यादव से बात नहीं कर सकीं और नाराज जयंत ने पिता अजित सिंह के साथ  रालोद के महागठबंधन से बाहर होने का ऐलान कर दिया। इसके बाद गुलाम नबी आजाद ने भी अखिलेश से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्हें भी कामयाबी नहीं मिली। 
तब आजाद ने सपा महासचिव और अखिलेश के मुख्य रणनीतिकार रामगोपाल यादव से बात की तो जवाब मिला अखिलेश सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, कांग्रेस के नेताओं को हमेशा सीधे उनसे बात नहीं करनी चाहिए। दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्रशांत किशोर की शुरुआती रणनीति ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जान डालकर पार्टी को चर्चा और मुकाबले में ला दिया था, उससे भाजपा बेहद असहज थी। उसे अपने सवर्ण जनाधार के बंटने का खतरा दिखने लगा था। फिर महागठबंधन की चर्चा ने परेशानी और बढ़ा दी।

इसे भांपकर भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले रालोद को चारा डाला। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के संपर्क सूत्रों ने रालोद अध्यक्ष अजित सिंह को प्रस्ताव दिया कि वह रालोद का भाजपा में विलय कर दें। बदले में उनके लोगों को भाजपा उन सीटों पर टिकट देगी जहां रालोद का दावा मजबूत है। साथ ही उत्तर प्रदेश में सरकार बनने पर जयंत चौधरी को मंत्री और अजित सिंह को राज्यसभा में भेजा जाएगा। कांग्रेस में सपा से गठबंधन की रणनीति प्रशांत किशोर यानी पीके ने बनाई थी। 

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी का जिम्मा संभालने के बाद पीके के प्लान ए के तहत ही अप्रैल-मई में कांग्रेस के प्रदेश संगठन में बदलाव प्रदेश नेताओं की यात्राएं, राहुल गांधी और सोनिया गांधी की सभाएं और यात्राएं, किसान कर्ज माफी फार्म भरवाने जैसे अभियान सफलता पूर्वक संपन्न हुए। इसके बाद संदेश यात्राएं और प्रियंका गांधी की तूफानी जनसभाएं होनी थीं। 

लेकिन कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की अड़ंगेबाजी ने इस योजना को पंचर कर दिया। तब प्लान बी के तहत पीके ने सपा कांग्रेस रालोद गठबंधन की रणनीति बनाई और उन्होंने राहुल व प्रियंका को यह समझाने में कामयाब रहे कि अगर अकेले कांग्रेस लड़ी तो पांच सीटें आनी भी मुश्किल होंगी। इसलिए एकमात्र रास्ता सपा के साथ गठबंधन का ही ही है।

अखिलेश का सियासी ग्राफ एकाएक खासा ऊपर चला गया

उधर परिवार और पार्टी में यादवी घमासान में विजेता होने के बाद अखिलेश का सियासी ग्राफ एकाएक खासा ऊपर चला गया। इस घमासान में कांग्रेस ने परोक्ष रूप से अखिलेश को न सिर्फ नैतिक समर्थन देकर मनोबल बढ़ाया, बल्कि कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल खुद चुनाव आयोग में अखिलेश खेमे के वकील बनकर पेश हुए। कांग्रेस सपा की यह दोस्ती भाजपा के लिए खतरे की घंटी बनी। पार्टी के रणनीतिकार पर्दे के पीछे सक्रिय हुए। 
भाजपा के बेहद करीबी एक पत्रकार ने रामगोपाल यादव को कांग्रेस से गठबंधन के लंबे सियासी नुकसान गिनाते हुए अकेले चुनाव लड़ने की सलाह दी और सियासी फायदे भी बताए। उधर, कांग्रेस में गठबंधन के पैरोकार अखिलेश और राहुल की सियासी केमिस्ट्री को गठबंधन की गारंटी मान रहे थे, उनके होश तब उड़ गए जब न सिर्फ अखिलेश ने कांग्रेस नेताओं के फोन लेने बंद कर दिए, बल्कि एकतरफा 209 सीटों पर उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी। जिनमें कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रदीप माथुर समेत सात विधायकों की सीटें भी शामिल थीं।

राहुल गांधी समेत कांग्रेस के सभी नेता अखिलेश के बदले रुख से हैरान रह गए। एक आखिर कोशिश राज बब्बर और अखिलेश की मुलाकात कराने की शुक्रवार को की गई। राज बब्बर हवाई अड्डे से वापस किए गए, लेकिन बात नहीं बनी। अगले दिन प्रशांत किशोर और धीरज श्रीवास्तव भी बैरंग लौटा दिए गए। सपा नेता नरेश अग्रवाल ने गठबंधन न होने का ऐलान कर दिया। दस जनपथ और 12 तुगलक लेन में हड़कंप मच गया। 

तब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने कमान संभाली और रात में ही उन्होंने सोनिया गांधी की बात अखिलेश से कराकर बंद दरवाजा फिर खोला और नामुमकिन दिख रहे काम को मुमकिन बना दिया। लेकिन कांग्रेस के कई नेता और कार्यकर्ता इस पूरे मामले में अपने नेतृत्व और पार्टी को ठगा सा मान रहे हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ चुके एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि जो गठबंधन दिल और दिमाग दोनों से होता है वो कामयाब होता है और जो सिर्फ दिमाग से किया जाता है, वह जमीन पर अमल में नहीं आता।

 

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