कैफी ने रचनाओं में की थी इंकलाब की वकालत

कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले उस इंकलाब का जो आज तक उधार सा है’ ये पंक्तियां किसी और की नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर शायर और फिल्म गीतकार दिवंगत कैफी आजमी के हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में आजीवन इंकलाब की वकालत की। इसी जज्बे का परिणाम रहा कि उनके पैतृक गांव मेजवां में वह हर एक सुविधा है जो एक आदर्श गांव में होनी चाहिए।IMG_8367
 
   उर्दू के मशहूर शायर और फिल्म गीतकार मरहूम कैफी आजमी का जन्म फूलपुर तहसील क्षेत्र के मेजवां गांव में 14 जनवरी 1919 में हुआ था। उन्होंने अपनी रचनाओं में आजीवन इंकलाब की वकालत की। भारत की आजादी के बाद जिन लेखकों और शायरों ने अपनी लेखनी और कर्म से सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन खड़ा किया, कैफी आजमी उन चंद लोगों में खास थे।

  उन्होंने शायरी के माध्यम से दुनिया में पहचान बनाई तो अपने जीवन के आखिरी 20 वर्षों में अपनी जन्मभूमि पर रहकर गांव के विकास के लिए संघर्ष किया था। माता-पिता ने उनका नाम बड़े प्यार से सैय्यद अतहर हुसैन रिजवी रखा था। बाद में यही अतहर हुसैन कैफी आजमी के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर हुए। उनके खानदान के लोग गांव में इंसानियत और तहजीब की एक मिसाल थे। यही कारण था कि इस गांव में विभिन्न धर्मों के अनुयायी होने के बाद आपस में एक-दूसरे को किसी न किसी रिश्ते से पुकारते थे। कैफी आजमी हमेशा गरीबों और मजदूरों के लिए संघर्ष करते रहे। उनका संघर्ष अंतिम समय तक जारी रहा।

उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में ‘पहली गजल लिखी ..इतना तो जिंदगी में किसी के खलल पड़े। कैफी बहुत खास शायर थे।    वह उर्दू के प्रति अधिक भावुक थे, जिनकी उपेक्षा पर एक बार उन्होंने पद्मश्री तक नहीं लिया।

वे जिंदगी भर बोलकर, लिखकर प्रतिरोध करते रहे। उनकी रचनाशीलता अंतिम सांस तक सक्रिय रही। उन्होंने 1943 में मुंबई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उर्दू समाचार पत्र कौमी जंग में कुछ दिन काम किया। इसके बाद उन्होंने प्रख्यात नाट्यकर्मी शौकत से निकाह कर लिया। फिल्मों में उन्होंने गीत लेखन अपने जीवन यापन के लिए किया था, 1948 में शहीद लतीफ की ‘बुजदिल’ उनकी पहली फिल्म थी।

शमां, कागज के फूल, हकीकत, पाकीजा, शोला और शबनम, अर्थ, अनुपमा, हंसते जख्म, मंथन, हीररांझा, शगुन, हिंदुस्तान की कसम, नौनिहाल, नसीब, फिर तेरी कहानी याद आई, तमन्ना सहित कई फिल्मों में उन्होंने गीत लिखें। जिले में कैफी साहब की स्मृतियों को याद करते हुए काजी अब्दुल वाफी कहते है कि वह जमींदार घराने के होने के बावजूद गरीबों के दर्द को शिद्त से महसूस करते थे। जो बाद में उनकी शायरी का हिस्सा बन गई।

 
 

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