लखनऊ- भोले के प्रसाद के रूप में पहचानी जाने वाली भांग से ऐसी दवाएं बनाने की तैयारी है, जो पेन मैनेजमेंट के साथ पार्किंसन, अल्जाइमर, मिर्गी, भूख न लगने जैसे रोगों के उपचार में काम आएंगी। यही नहीं, किसान इसकी खेती से कमाई भी कर सकेंगे। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआइ) ने केन्नेबिस (भांग) शोध में एक कदम आगे बढ़ाते हुए ऑस्ट्रेलियाई यूनिवर्सिटी से हाथ मिलाया है। दोनों मिलकर भांग की ऐसी किस्में तैयार करने की दिशा में काम कर रहे हैैं, जिसमें नशीला तत्व टेट्राहाइड्रोकेनेबिनॉल (टीएचसी) मानक 0.3 फीसद से कम हो लेकिन महत्वपूर्ण औषधीय तत्वों से भरपूर हो।
निदेशक डॉ. एसके बारिक ने बताया कि लिसमोर की यूनिवर्सिटी के साथ सभी बातें तय हो चुकी हैं। जल्द ही एमओयू किया जाएगा। उनका कहना है, केनेबिस के तमाम औषधीय गुणों का हम केवल इसलिए दोहन नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि नारकोटिक्स विभाग इसकी खेती की अनुमति नहीं देता है। जबकि कैंसर जैसे रोगों में अत्यंत कारगर भांग की उपयोगिता देखते हुए वैज्ञानिक इसकी व्यावसायिक खेती के पक्षधर हैं।
केनेबिस पर रिसर्च कर रहा एनबीआरआइ
बीते वर्ष एनबीआरआइ में केनेबिस रिसर्च सेंटर की स्थापना की गई थी। यही नहीं, उत्तर प्रदेश सहित उत्तराखंड सरकार ने रिसर्च के लिए इसकी खेती की भी अनुमति दी थी। एनबीआरआइ देश भर से भांग के जर्मप्लाज्म एकत्र कर बंथरा शोध केंद्र में मूल्यांकन कार्य किया जा रहा है। मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड से जर्मप्लाज्म एकत्र करने का काम हो चुका है और अन्य राज्यों से भी पौधे एकत्र किए जा रहे हैं। मकसद ऐसी किस्म को चुनना है जिसमें नशा न हो, लेकिन औषधीय तत्व भरपूर हों।
यह होते हैं गुण
कैंसर मरीजों को दर्द से राहत दिलाने के लिए मार्फीन दी जाती है। भांग पेन मैनेजमेंट में मार्फीन के मुकाबले ज्यादा कारगर है और इसके मार्फीन जैसे दुष्प्रभाव भी नहीं हैं। बीज प्रोटीन का बड़ा स्रोत है। एनबीआरआइ इससे इंडियन फॉर्माकोपिया के अनुसार औषधि व न्यूट्रास्यूटिकल तैयार करने की कोशिश में है। रेशा (फाइबर) बेहद कोमल व मजबूत होने के कारण मर्सिडीज जैसी गाडिय़ों के साथ-साथ, दास्तानों, बोरा व मोजे आदि बनाने में प्रयोग होता है।