भारत के संसदीय इतिहास में 30 जुलाई, 2019 की तारीख एक अहम पड़ाव के रूप में दर्ज हुई। उच्च सदन में ऐतिहासिक तीन तलाक बिल पारित होने के बाद मुस्लिम महिलाओं के न्याय और सम्मान की दिशा में एक ऐसी सफलता हासिल हुई, जिसकी प्रतीक्षा दशकों से थी। विपक्ष के तमाम गतिरोध के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने इसे पूरा करने की दिशा में प्रयास जारी रखे और अंतत: कामयाबी पाई। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह कानून प्रभाव में आ गया है। यह तीन तलाक जैसी कुप्रथा का दंश झेल रही महिलाओं को संरक्षण प्रदान करेगा। राज्यसभा में तीन तलाक बिल पर हुई चर्चा और उसके पारित होने की प्रक्रिया को बारीकी से देखें तो अनेक बिंदु उभरते हैं। इस बिल को महिलाओं के सम्मान, स्वाभिमान और गरिमायुक्त जीवन के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता और निरंतर प्रयासों की जीत के रूप में देखा जाना चाहिए। यह विपक्ष के दोहरे मानदंडों को उजागर करने वाला भी रहा। तीन तलाक बिल पर चर्चा ने उन दलों के वास्तविक चरित्र को उजागर किया, जिनके लिए महिलाओं के आत्मसम्मान से ज्यादा महत्वपूर्ण वोटबैंक का तुष्टिकरण है। एक अन्य तथ्य यह भी उभरा कि विपक्षी दलों को एकजुट करने की कांग्रेस की क्षमता क्षीण हुई है। जब जनसरोकार से जुड़े विषय पर कोई सरकार मजबूती से कदम उठाती है तो एक बड़े वर्ग का स्वागत और समर्थन स्वाभाविक होता है। तीन तलाक बिल जनसरोकार और सामाजिक सुधार से जुड़ा था, इसलिए कई गैर राजग दलों ने भी सहयोग दिया, जिसका हम स्वागत करते हैं। हम विभिन्न् दलों से अनुरोध करते हैं कि राजनीति से ऊपर उठकर कानूनी रूप से सुधारवादी कार्यों में सहयोग करें।
आज से तीन दशक पूर्व एक अवसर तब आया था जब शाहबानो मामले में 400 से अधिक सांसदों वाली कांग्रेस मुस्लिम महिलाओं को इस दंश से मुक्त करा सकती थी। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक से पीड़ित शाहबानो के पक्ष में फैसला देते हुए उसे 500 रुपए प्रतिमाह के गुजारा भत्ते का प्रावधान रखते हुए कहा था कि यह फैसला शरीयत के अनुसार है, पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मौलवियों और वोट बैंक की राजनीति के दबाव में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अदालत के आदेश के विपरीत फैसला लिया। तब कांग्रेस के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, जो कोर्ट के आदेश को तर्कसंगत मानते थे, ने विरोध में इस्तीफा दे दिया। इस फैसले का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर ने पत्र लिखकर राजीव गांधी के फैसले को कुरान के खिलाफ बताया, किंतु वर्षों तक यह मुद्दा ठंडे बस्ते में रहा। मोदी सरकार आने के बाद इस विषय को जब दोबारा लाया गया, तब भी कांग्रेस के रुख में कोई बदलाव नहीं आया। तीस साल पहले कांग्रेस का जो रुख था वही इस बार भी सदन की चर्चा और वोटिंग के समय देखने को मिला। इस बिल ने तथाकथित उदारवादियों की भी पोल खोल दी। महिला अधिकारों के लिए आए दिन तख्तियां लहराने वाले कथित उदारवादी खेमे के लोग मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा से मुक्ति के इस कदम पर मौन साधकर बैठ गए अथवा उसका विरोध करने लगे। इससे साबित हो गया कि उनकी उदारता मानवीय मूल्यों से नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित है।
तीन तलाक संबंधी कानून पर प्रश्न उठाने वाले भूल जाते हैं कि अगस्त 2017 में कोर्ट द्वारा उस पर पाबंदी लगाने के बाद भी ढाई सौ से अधिक मामले सामने आए। इससे साफ हो गया कि बिना कानून लाए इस कुरीति से मुस्लिम बहनों के हितों की रक्षा नहीं हो सकती थी। तीन तलाक को लेकर जिन आम महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में लंबी लड़ाई लड़ी, वे किसी दल से प्रेरित नहीं थीं। इस कुप्रथा से त्रस्त महिलाओं ने आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई और सुप्रीम कोर्ट में उन्हें जीत भी हासिल हुई। हमारी सरकार इन महिलाओं के संघर्ष में हमेशा साथ रही और तीन तलाक पर कानून लाकर उनकी लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। राजनीतिक दलों का यह दायित्व ही होता है कि वे जनसामान्य की आवाज को उचित स्वरूप देकर सही दिशा में आगे बढ़ें। संसद का भी यह काम होता है कि वर्तमान समय और जरूरतों के अनुरूप नीतियों व नियमों का निर्माण करे। इस मामले में हमारी पार्टी और सरकार के साथ संसद ने भी अपने दायित्व का सम्यक निर्वहन किया।
यदि तीन तलाक ईरान, इराक, सीरिया और पकिस्तान जैसे 19 देशों में अमान्य है तो इसका यही कारण है कि वर्तमान समाज की जरूरतों के बीच रूढ़ियों व दकियानूसी परंपराओं को लेकर नहीं चल सकते। भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में महिलाओं के अधिकारों एवं गरिमा का हनन करने वाली इस कुप्रथा का बने रहना शर्मनाक था। इस संबंध में विपक्षी दलों का यह आपत्ति निराधार है कि इसे सिर्फ मुस्लिम समाज के लिए क्यों किया जा रहा? भले ही आज हम मुस्लिम समाज में व्याप्त इस कुरीति के खिलाफ मजबूत कानून बनाने के लिए खड़े हुए हों, लेकिन इससे पूर्व अन्य धर्मों में भी जरूरी सुधार किए गए, वह चाहे बाल विवाह का अधिनियम हो, हिंदू विवाह अधिनियम हो, दहेज प्रथा के विरुद्ध कानून हो अथवा ईसाई अधिनियम हो। इस तरह के कानूनी परिवर्तन और सुधार सब धर्मों में किए जाते रहे हैं। यह अलग बात है कि सुविधा की बहस और तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को यह दिखाई नहीं देता अथवा वे देखकर भी अनदेखा करना चाहते हैं।तीन तलाक संबंधी कानून में दंडात्मक प्रावधान को लेकर भी सवाल उठाना ठीक नहीं है। यह पहली बार नहीं कि किसी सिविल मामले में कानून बनाकर उसमें दंड का प्रावधान किया गया हो। अन्य अनेक सिविल मामलों में भी दंड का प्रावधान है। मसलन, दहेज लेने पर कम से कम पांच वर्ष, दहेज मांगने पर कम से कम छह महीने, शादीशुदा रहते हुए दोबारा विवाह करने पर सात वर्ष की सजा और बाल विवाह पर दो वर्ष की सजा का प्रावधान है। ये सभी कानून हिंदू समाज के लिए कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में बने। स्पष्ट है कि तीन तलाक संबंधी कानून में सजा का प्रावधान होना कोई नई बात नहीं है। महिला अधिकारों और जीवन जीने की गरिमा का हनन करने वाले व्यक्ति में दंड का भय होना ही चाहिए, किंतु इस मामले में कांग्रेस का रुख तुष्टिकरण की राजनीति वाला रहा।
तीन तलाक को लेकर हुआ यह परिवर्तन हो या पूर्व में अन्य मामलों में न्यायालय के निर्णय से हुआ परिवर्तन हो, इस तरह के परिवर्तन को हमें समझना, स्वीकारना और संभालना होगा। इस संदर्भ में हमारी संसद एक बेहतर उदाहरण है। हमारी सामूहिक सोच और चिंतन का नाम ही संसद है, जहां एक ही मुद्दे पर विविध विचारों से गुजरते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाता है। तमाम गतिरोध और सदन में बाधा के बावजूद मोदी सरकार इसमें कामयाब हुई। मोदी सरकार इसके लिए बधाई की पात्र है कि उसने तीन तलाक पर न केवल मजबूत कानून लाने का साहसिक फैसला किया, बल्कि तमाम विरोध के बावजूद दृढ़ता से आगे बढ़ती रही। तीन तलाक संबंधी कानून बनने के बाद इतिहास में प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी का नाम निश्चित रूप से राजा राममोहन राय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर सरीखे सामजिक सुधारकों की श्रेणी में रखा जाएगा। तीन तलाक संबंधी कानून मुस्लिम महिलाओं के हितों और अधिकारों की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा। अब उनके लिए एक नए युग का आरंभ होगा और तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के अंत की शुरुआत होगी।