अशोक कुमार गुप्ता।भारतीय समाज काफी प्राचीन है जिसका जन समुदाय विभि जातियों में विभाजित रहा है। समाज की जातीय रूपरेखा को हिन्दू धर्मशास्त्रों में व्यवस्थित किया गया है जिसका प्रभाव इतना व्यापक है कि भारत में अन्य धर्मों के मानने वालों में भी इसका असर दिखता है। हिन्दू धर्म में वर्णित जातियों को विशेष अधिकार तथा विशेष दायित्व के आधार पर ऊँचा से नीचा दर्जा देकर संगठित किया हुआ है। सभी जातियां अन्तर्विवाह पर आधारित ह तथा व्यक्ति की जाति जन्म से तय होती है।
जनजातियों का अस्तित्व
हिन्दू धर्म में वर्णित जाति व्यवस्था के अतिरिक्त भारत के वन क्षेत्रो में सैकड़ों ऐसे समूह विद्यमान है जो उपरोक्त जाति व्यवस्था से अलग है। इन्हीं लोगों को जनजाति के रूप में लम्बे समय से भारतीय समाज में मान्यता प्राप्त है। ये अपनी बहुत–सी विशिष्टताओं को बनाये रखते हुए वन क्षेत्रो में रहते आए है।
इन जनजातियों की अपनी एक वन अर्थव्यवस्था है जो प्राकृतिक खेती समेत वन उपजों पर आधारित है और वन उत्पादों को एकत्रा करके उन्हें बाजार में बेचना इनके जीवन–यापन का एक महत्वपूर्ण आधार रहा है। अपने क्षेत्रा की वन सम्पदा पर इनका एकल प्राधिकार रहा है।
इन जनजातियों की विशिष्टताओं में इनके जीवन का प्राकृतिक रूप और सरल स्वभाव तथा सामूहिक पहलकदमी उल्लेखनीय है जो सभी प्रकृति के साथ इनके सामूहिक सम्बन से उपजी हैं। इन समूहों की संस्कृति की कई पृथक विशिष्टताएं विद्यमान है और शेष समाज के साथ इनके सम्बन पर आधारित; हिन्दू, ईसाई व अन्य धार्मिक परम्पराओं के कुछ असर भी इनकी संस्कृति में देखने को मिलते है। इनका पहनावा, रहन–सहन, इनके देवी–देवता, इनका खान–पान, इनके मनोरंजन के रूप, नृत्य व संगीत, त्योहार, जन्म, विवाह, मृत्यु पर इनके रीति–रिवाज, प्रकृति के प्रति इनका सम्मान तथा इससे उत्प जीवन के प्रति इनका प्राकृतिक जीवन दर्शन इनकी संस्कृति की विशिष्टताएं है। इसी के साथ–साथ इनके समाज के अन्दरूनी संगठन के भी प्राकृतिक रूप ह जिनके चिन्ह आज भी देखने को मिलते है ।
जनजातियों का तीव्र शोषण
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ और भारत के बड़े जमदार, बड़े व्यापारी वर्ग द्वारा अंग्रेजों की दलाली करने के साथ, भारत की औपनिवेशिक लूट को बढ़ाने के लिए भारत की प्राकृतिक सम्पदा का क्रूर दोहन तेज हो चला। इसी के साथ वनों पर जनजातियों के अधिकार और उनके समाज व संस्कृति पर भी हमले पहले से तेज हो गये। कुर्बानियों के साथ भारत के विभि आदिवासी समूहों ने अपने क्षेत्रो में अंग्रेजों को भरपूर चुनौती दी। सन्थाल, मुण्डा, हो, कंध, भील, कोया, कोल, कोली आदि संघर्ष महत्वपूर्ण रहे है और बिरसा मुण्डा, कानू, सिद्धू, आलुरि सीताराम राजू आदि इनके संघर्षों के बहादुर नायक रहे है।
औपनिवेशिक शासकों द्वारा इनकी वन सम्पदा को लूटना, उन पर कब्जा करके जंगल काटना, साहूकारों द्वारा उन्हें कर्ज में फँसाना और इनके मेहनतकशों को कुली के रूप में इस्तेमाल ने एक ओर वनों पर अधिकार की रक्षा के संघर्षों को जन्म दिया और दूसरी तरफ इस बाहरी समाज के द्वारा विकास कार्यों के नाम पर दखलंदाजी ने उनके वास्तविक इरादों के प्रति इनके मन में संदेह उत्प किया।
अंग्रेजों के राज्य की समाप्ति के बाद, आदिवासियों के संघर्षों के मद्देनजर एवं विकास के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान किए जाने के इरादे से इनकी एक सूचि संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार 5वीं व 6ठी अनुसूची में दर्ज की गई। इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रा दर्ज ह, जिन्हें सामान्य भाषा में वन क्षेत्रा कहा जाता है और इनमें रहने वाली जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। अनुसूचित जनजातियां वही जनजातियां हैं जो संविधान की इस 5वीं व 6ठी अनुसूची में 1950 से दर्ज है। इन क्षेत्रो की विशिष्ट परिस्थिति के अनुरूप सरकार ने इन क्षेत्रो के लिए कुछ अलग कानून व सुविधाएं घोषित कर रखी है।
अंगे्रजी औपनिवेशिक शासन काल से ही और बाद में साम्राज्यवाद, बड़े पूँजीपति व बड़े जमींदारों के राज और शासन के दौरान जनजातियों के बहुत–से पारम्परिक क्षेत्रो से जंगल साफ करके उन्हें मैदानी इलाकों में परिवर्तित कर दिया गया है, हालांकि इस प्रकार के क्षेत्रो के बहुत–से वनीय लक्षण आज भी मौजूद ह। दूसरी ओर बहुत से वन क्षेत्रो में मैदानी लोगों की बसापत के कारण ऐसे इलाकों में जनसंख्या का मिश्रित रूप विकसित हो गया है और ऐसे क्षेत्रो का जनजातीय बहुल स्वरूप बदल गया है। इन परिवर्तनों ने भारत के बहुत–से इलाकों में इस तरह की गैर–अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों की परेशानी एवं समस्याओं को सामने ला दिया है। ऐसे इलाकों की जनजातियां अपने प्राकृतिक अधिकार क्षेत्रो से तो वंचित है ही, इनमें से बहुत–सी जनजातियों की जनजातीय दर्जे की पहचान से भी इंकार किया जा रहा है। जाहिर है, इनके लिए अपने जनजातीय विकास व अधिकारों की विशेष मांगों को उठा पाना मुश्किल हो गया है।
`स्वाधीन‘ भारत में जैसे–जैसे साम्राज्यवाद– परस्त विकास की योजना पर अमल हुआ है, वैसे–वैसे गरीब लोगों के पारम्परिक अधिकारों पर हमले और तेज हुए ह। आदिवासी लोग भी इनके शिकार रहे है और नियम–कानून, सरकारी नीतियों एवं कोर्ट–कचहरियों के भी यही लोग निशाना बने ह। विशेष आर्थिक क्षेत्रों तथा खनिज सम्पदा की लूट हेतु बड़ी कम्पनियों की स्थापना और बड़े बांध निर्माण में जलमग्न क्षेत्रो से प्रभावित होकर भी आदिवासी अपने प्राकृतिक निवास स्थान से वंचित होते रहे है। इस भेदभावपूर्ण विकास ने उनके बड़े–बड़े संघर्षों को जन्म दिया है। इन्हीं संघर्षों को संसदीय दायरों में समेटने के इरादे से सरकार ने हाल ही में नई ट्राइबल पॉलिसी तथा अनुसूचित जनजाति (वन पर अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, `06 पारित किया है, जिसे जनवरी `08 से लागू किया गया है।
जनजाति की पहचान
जनजातियों को पहचानने के लिए जो मापदण्ड अपनाये गये है वे है कि ये समुदाय एक खास क्षेत्रो में ही इकट्ठा निवास करते है, यानी भौगोलिक रूप से पृथक है। इनकी जीवन–पद्धति सामुदायिक है तथा प्रकृति के साथ इनका सुमेल बना रहता है। इनकी एक विशिष्ट संस्कृति है, विशिष्ट रीति–रिवाज व परम्परायें तथा मान्यतायें ह जो सभी सरल, प्रत्यक्ष, अर्जित न करने की प्रवृत्ति से प्रेरित ह। राष्ट्रीय जनजाति नीति (ट्राइबल पॉलिसी) के अनुसार प्राचीन लक्षण, भौगोलिक पृथकता, सांस्कृतिक विशिष्टता, शर्मीलापन व पिछड़ापन ही वे लक्षण हैं जिनके आधार पर किसी जनजाति को अनुसूची में शामिल किया गया है।
उत्तर प्रदेश की कोल जनजातियों का यदि अययन किया जाये तो उपरोक्त सभी मापदण्ड उन पर पूर्णत: लागू होते ह। फिर भी इन्हें जनजाति दर्जे से वंचित रखा गया है। यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश की जनजातियों की सूचि में कई जनजातियों को शामिल कर रखा है। इनमें है भूटिया, बोक्सा, जौनसारी, राजी, थारू, (महाराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आज़मगढ़ जौनपुर, बलिया, गाज़ीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र) के गोंड, धूरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड, (देवरिया, बलिया, गाज़ीपुर, वाराणसी व सोनभद्र) के खरवार व खैरवार, ललितपुर के सहरिया, सोनभद्र के पहररिया, बायगा, अगरिया, पटारी, भुया व भईंया, मिर्जापुर व सोनभद्र के पनखा और परिका तथा वाराणसी व सोनभद्र के चीरो।
कोल आदिवासी
भौगोलिक रूप से कोल जनजाति मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के पड़ोसी जिलों की निवासी रही है। इन दोनों प्रान्तों की इस जनजाति में आपस में एकता है, उनके पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध है और वे एक ही परम्परा का हिस्सा है। मध्य प्रदेश में उत्तर प्रदेश की सीमा तक के क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है और वहाँ के कोल आदिवासियों को जनजाति का दर्जा दिया गया है, परन्तु उत्तर प्रदेश से जुड़े हुए भौगोलिक क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्रों में नहीं शामिल किया गया है और उत्तर प्रदेश के कोलों को अनुसूचित जनजाति दर्जे से वंचित किया हुआ है।
1961 में हुई भारत की जनगणना के अनुसार कोलों की कुल जनसंख्या 5,58,747 थी और इनमें से 3,86,009 मध्य प्रदेश में एवं 1,26,288 लोग उत्तर प्रदेश में निवास करते थे। इसके अलावा 46,397 उड़ीसा में थे। उत्तर प्रदेश में कोल केवल दक्षिणी पठारी इलाके में रहते है। ये वर्तमान बांदा, चित्राकूट, इलाहाबाद, मिर्जापुर, वाराणसी एवं सोनभद्र जिले में रहते है जो इनकी भौगोलिक पृथकता का प्रमाण है। 1961 में कोल उत्तर प्रदेश की सम्पूर्ण जनजातियों का 22 फीसदी थे।
संस्कृति व जीवन
कोल आदिवासियों के प्राकृतिक सामाजिक संगठन के कई विशिष्ट रूप कई स्थानों पर आज भी मिलते है। इनका समाज पितृसत्ता पर आधारित है और संयुक्त परिवार की प्रथा आम बात नहीं है। विवाह के बाद पुत्र अलग हो जाता है। कालांतर में इनके अन्दर कुछ उपजातियां भी बन गई ह, पर उपजातियों में विभाजन काम के आधार पर नहीं है और सभी कोल आदिवासी सामान्यत: मजदूरी व खेती तथा वनों पर निर्भर ह। इनके रीति–रिवाजों में इनकी पारम्परिक विशिष्टता के अतिरिक्त हिन्दू संस्कारों का प्रभाव भी दिखता है।
कोलों की सामाजिक व्यवस्था में, जहाँ कोलों की संख्या पर्याप्त है, एक मुखिया होता है और सभी के सम्मान का पात्रा होता है। मुखिया बारह सदस्यीय पंचायत का प्रमुख होता है और ये पंचायतें सर्वोपरि जनजातीय पंचायत के आधीन होती हैं, जो कई गांवों के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को मिलाकर गठित की जाती है। पंचायत में महिला सदस्य नहीं होती है। जिन गांवों में केवल मुखिया होता है वह विवाद निस्तारण के लिए एक दल नामांकित करता है।
कोल आदिवासियों में दीवानी के विवाद बहुत कम होते है व सरल होते है और इनकी पंचायतें इनके फैसलों का समर्थन कर देती है। सर्वोपरि पंचायत गम्भीर विवादों पर गौर करती है जो सामाजिक, आयात्मिक व सांस्कृतिक मामलों से सम्बनित होते है। आपात स्थिति के अतिरिक्त इसे जेष्ठ व बैसाख के महीनों में किसी देव स्थान/छायादार स्थान पर बुलाया जाता है। लैंगिक संसर्ग व लड़की भगाने जैसे गम्भीर अपराधों में सर्वोपरि पंचायत द्वारा किये गये फैसले अन्तिम व आबद्धकारी होते ह। दोषी व्यक्ति को दण्ड के रूप में बिरादरी को दावत देनी होती है और स्त्री या पुरुष को निर्धारित समय के लिए जाति बहिष्कृत कर दिया जाता है। फिर भोज–भात के बाद पुन: बिरादरी में वापस लिया जाता है। गैर–बिरादरियों द्वारा किए गये अपराधों का निस्तारण इन पंचायतों में नहीं किया जाता है।
कोलों में महिलाओं (कोलिन) को अन्य बिरादरियों की तुलना में बराबरी का दर्जा प्राप्त है, विशेषत: क्योंकि परिवार में वे बराबर की कमाऊ सदस्य है । विवाह तय करते समय लड़की के माता–पिता द्वारा वर ढूंढ़ने की पहल करना इनकी परम्परा नहीं है। तलाक में पंचायत के समक्ष स्त्री ही पहल करती है। स्त्री–पुरुष विवादों में कोलों का रवैया बहुत लचीला है और नैतिक ढिलाई आम बात नहीं है। जमींदारों के क्षेत्रों में गरीबी के कारण कोलिन अक्सर यौन शोषण का शिकार होती है।
इनका धर्म सर्वचेतनावाद पर आधारित है और अदृश्य आत्माओं, भूत–प्रेतों व पिशाचों पर इनका गहरा विश्वास है। ये सब रहस्यमयी ढंग से इनके भाग्य एवं जीवनचर्या के विधाता समझे जाते ह और दो वर्गों में विभाजित है – एक शुभचिंतक और दूसरा दुराशयवादी। इनकी मान्यता है कि अप्राकृतिक मौतों व महामारियों में मरने वालों की आत्मा भूत–पे्रतों की योनि में प्रविष्ट हो जाती है जो कि रूखे–सूखे वृक्षों, खंडहरों में निवास करते है । इसलिए ऐसे संकट के समय इन स्थानों के निकट से गुजरना खतरनाक माना जाता है। इन दुष्टात्माओं को भगाने के लिए अक्सर कोल लोग भूत–पिशाचों के डाक्टर (भर्रा) द्वारा मंत्रों का पाठ कराकर मुर्गा, सुअर, भेड़ व बकरों की भेंट चढ़ाते है।
इसी तरह वे अपनी शुभचिन्तक आत्माओं का सम्मान भी करते है। इनके शुभचिन्तक देवता दूल्हादेव है जिनकी पूजा की जाती है। भुइहार देवता (डीह) को गांव का रक्षक माना जाता है। भासुरिया बांदा के कोलों के एक वर्ग के महान देवता है । इसके अतिरिक्त बाबादेव, भगत और बड़ा देव की भी पूजा की जाती है और यह माना जाता है कि त्योहार व अन्य अवसरों पर देवता जनजातियों के शरीर में प्रवेश कर जाते है। ऐसे अवसरों पर जब सामुदायिक नृत्य होते है तब उसमें भाग लेने वालों पर देवताओं की सवारी होती है। इनके गांवों में मध्य स्थान पर या उनकी झोपडि़यों के सामने खुले आकाश के नीचे मंदिर स्थापित होते है। ये मंदिर मिट्टी के चबूतरों पर कुछ पत्थर की मूर्तियों व झण्डे के साथ होते है। ऐसे मंदिर अमूमन हर परिवार के पास होते है। इनके जीवन में अनविश्वास का महत्वपूर्ण स्थान है तथा शुभ व अशुभ मुहूर्त, ज्योतिष व हस्तरेखा की बड़ी भूमिका है।
हिन्दू समाज में कोलों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता रहा है और इनके अपने धार्मिक विश्वासों को हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है।
इनका जीवन बेहद सरल व कठोर परिश्रम से व्यतीत होता है। ये ज्यादातर भूमिहीन हैं और भरपेट भोजन जुटाने के लिये साहूकारों एवं ठेकेदारों के जाल में फंसे हुए है। फिर भी, अपने मनोरंजन की प्रक्रियाओं जैसे सामूहिक गायन, सामूहिक नृत्य व देशी शराब का ये सेवन करते है । आमतौर पर स्त्रियां नृत्य करती ह और पुरुष वाद्ययंत्रों के बजाने की व्यवस्था करते है । उनके विवाह गीत व रीति–रिवाज अन्य गरीब समुदायों के रिवाजों से काफी मिलते–जुलते है ।
उपरोक्त पूरा विवरण उत्तर प्रदेश की कोल जनजातियों के विशिष्ट सांस्कृतिक लक्षण, प्राचीनता, पिछड़ेपन और शर्मीलेपन के लक्षणों को दर्शाता है।
जनजाति दर्जे से वंचित
कोल आदिवासियों को जनजातीय दर्जा दिये जाने के सवाल पर इन पांच–छ: जिले के कोलों के विषय में कुछ और महत्वपूर्ण तथ्य गौर करने योग्य है । यह तो स्पष्ट है कि ये आदिवासी कोल इस इलाके के परम्परागत और पुराने निवासी है । कालान्तर में इलाके में हुए विकास कार्यों में जंगलों के कटने से इनका वनों पर आधारित प्राकृतिक जीवन तो बर्बाद होता ही रहा है, साथ ही साथ ये वनों से बेदखल भी किये जाते रहे है।
इलाके में पिछले लगभग 100–150 सालों में बड़े पैमाने पर गिट्टी, बालू व सिलिका सैण्ड के खनन का काम विकसित हुआ जिस पर सरकार द्वारा निर्मित नए–नए कानूनों के अन्तर्गत इनके वनों को वन संरक्षण अधिनियम के तहत एवं जमीन के खनन कानून के अन्तर्गत संरक्षण करके इनसे छीना जा रहा है। इसके फलस्वरूप खनन कार्य के क्रियान्वयन को ठेकेदारों द्वारा लीज (पट्टा) पर दिया जाने लगा। ये ठेकेदार इन खनन कार्यों को शुरू में इन वंचित कोल जनजातियों तथा अन्य गरीब बिरादरियों से मेहनत करवाकर पूरा करवाते रहे और हाल में कुछ इलाके में इस काम के लिए मशीनों का भी प्रयोग शुरू हो गया। इसका नतीजा यह है कि खनन कार्य में कोल जनजाति व अन्य गरीब मजदूर ठेकेदारों के उधार में फँसकर अर्धबन्धुआ मजदूर के रूप में बेहद कम दाम पर मजदूरी करते रहे है । खनन की ठेकेदारियां या तो इलाके के बड़े जमींदारों के पास है या तो उनसे जुड़े ठेकेदारों के पास है और वे ही उनके काम से समृद्ध होते रहे है।
इस पूरे दौर में इस इलाके में जो पारम्परिक खेती होती थी, कोल जनजातियों का उसमें खेती के मालिक के तौर पर भागीदारी नगण्य रही। इस पूरे क्षेत्र में खेतों के मालिक या तो उच्च जातियों के रहे ह या पिछड़ी जातियों में कुछ लोग है। अत: इलाके में सिंचाई व्यवस्था के विकास के साथ ही खेती के विकास के लाभ से भी यह बिरादरी पूरी तरह से वंचित रह गयी और खेतों में इनकी कुल भूमिका बड़े जमींदारों के बंधुआ के रूप में बनी रही। जाहिर बात है कि ये बड़े जमींदारों के आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का शिकार होते रहे। यद्यपि, इस तरह के शोषण का शिकार इस क्षेत्र की दलित जातियां भी है और काफी हद तक पिछड़ी जाति के गरीब लोग भी इसके शिकार है, परन्तु इस शोषण के सबसे निचले पायदान पर कोल आदिवासी है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि इस इलाके में पाये जाने वाले हलवाहों में सबसे ज्यादा संख्या कोल लोगों की है।
साम्राज्यवाद व सामन्तवाद–परस्त आर्थिक नीतियों की `विकास‘ दिशा ने एक और विशेष असुरक्षा कोलों के जीवन में उत्प कर दी है। वन व खनिज सम्पदा की लूट की नीति और ठेकेदारों के कर्जजाल की परिस्थिति ने कोल आदिवासियों को बड़े पैमाने पर अपने मौलिक निवास स्थान से भी विस्थापित होकर इलाके की खदानों में काम करने के लिए काफी हद तक तितर–बितर किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि इस बिरादरी के काफी लोग आवासीय पट्टों से भी वंचित हो गए। शायद पूरे इलाके में यही एक बिरादरी होगी जिसके कई सदस्यों के पास न तो अपना निजी आवास है और न ही आवास का अधिकार ही है। यह स्थिति उनकी दरिद्रता, पिछड़ेपन तथा जमींदारों व ठेकेदारों पर आश्रित रहने में बड़ा योगदान करती है।
कोल आदिवासियों के पिछड़ेपन को बनाये रखने में उनकी बड़ी बसापत के इलाकों में स्कूलों व अस्पतालों का अभाव भी एक बड़ा कारण है। जहाँ अनुसूचित जनजातीय दर्जा मिलना उनके विकास के लिए सरकार पर एक विशेष जिम्मेदारी थोप सकती है, इस पहचान से उन्हें वंचित कर इस विशेष जिम्मेदारी के निर्वाह से सरकार अपने को मुक्त कर देती है।
ये विशेष जिम्मेदारियां क्या है, जिनके लिए संघर्ष, जनजातीय दर्जे के संघर्ष के साथ अभि रूप से जुड़ा हुआ है? ये विशेष जिम्मेदारियां है कोल आदिवासियों को खेती योग्य जमीन के पट्टे देना, उन्हें आवास के पट्टे देना, बालू व गिट्टी की खदानों को उनके नाम करना और खनन करने का उन्हें अधिकार देना, खनिजों के व्यवसाय में उनको प्राथमिकता दिलाना; पत्थर, गिट्टी व बालू का न्यूनतम रेट तय करना, वन विभाग द्वारा उन्हें उजाड़ने पर रोक लगाना, तेन्दू पत्ता, महुआ, इमारती लकड़ी आदि वनोत्पादों पर इनके समूहों का प्राधिकार स्थापित करना, इनके पारम्परिक, प्राकृतिक व सामूहिक जीवन–पद्धति की रक्षा व उसका विकास करते हुए राजनैतिक ढांचे में उसको विशेषाधिकार देना, इनके विकास के लिए इनके इलाकों में शिक्षा–स्थलों, विद्यालयों व अस्पतालों, पेयजल, बिजली आदि का विकास करना, गरीबी की इनकी विशेष परिस्थिति के कारण इनका सहयोग करने के लिए विशेष राशन प्रणाली स्थापित करना, इनके स्थानीय रोजगार के विकास के लिए विशेष योजनाएं लागू करना और इनकी बस्तियों एवं निवास स्थान इत्यादि के विकास के लिए विशेष सहयोग करना।
राजनीतिक दुरूपयोग
कोलों को जनजाति दर्जा देने और नौकरियों में एस0टी0 श्रेणी में लिए जाने के सवाल को काफी समय से कई राजनैतिक दल उठाते रहे है और आमतौर पर वोट बैंक की राजनीति के लिए इसका दुरूपयोग करते रहे है। कोलों में थोड़े से पढ़े–लिखे तबके के लोग इस सीमित दायरे में उठ रही मांग से आकर्षित भी हुए हैं क्योंकि वही हिस्सा इससे लाभान्वित हो सकता है। कोलों को जनजातीय दर्जा देने का यह पक्ष पूर्णतया न्यायोचित है। पर केवल यह तबका सरकार को जनजाति दर्जा देने के लिए मजबूर करने के लिए पर्याप्त दबाव नहीं बना सकता। अत: यह आवश्यक है कि इस मांग को कोल समुदायों के पूरे अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में उठाया जाये। जो दल इसे इस रूप में नहीं उठाते, जाहिर है कि कहीं न कहीं वे कोलों को वंचित रखने वालों के साथ जुड़ाव रखते है। राजनैतिक दलों में बिरादरी के नाम पर काम करने वाले कांगे्रस व भाजपा ने कभी भी इस मांग को औपचारिक रूप से नहीं स्वीकार किया है, परन्तु सपा व माकपा ने इसका चुनावी दुरूपयोग किया। बसपा ने इस पर कोई टिप्पणी ही नहीं की।
कठोर परिस्थितियों में काम करने वाले इन वंचित समुदायों के बीच बड़े पैमाने पर गैर–सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) भी सक्रिय है, जो सरकारी योजनाओं के अन्तर्गत अथवा विदेशी संस्थाओं से वित्त–पोषित हैं। ऐसे संगठन भी यदाकदा जनजाति दर्जे की मांग को उठाते रहे है। इसके अतिरिक्त कोल उत्थान के नाम पर भी कई स्थानों पर समितियां गठित हुईं परन्तु न तो इस मांग पर व्यापक स्तर पर संघर्ष संगठित हुआ है और न ही इनमें से किसी संगठन ने इस सवाल पर कोई बड़ी पहल की। इतना तो स्पष्ट है कि आदिवासी जनजाति दर्जे का सवाल जब भी कोल आदिवासियों के मौलिक विकास से जुड़कर उठेगा, तो वे सारे संगठन जो आदिवासी विकास की औपचारिकता पूरी करते रहे है और बड़े सामन्तों, ठेकेदारों व माफिया आदि से इन अधिकारों को छीनकर हासिल करने की दिशा नहीं अपनाते रहे है, संघर्ष में नहीं टिकेंगे।
जनजाति दर्जे की मांग से जुड़े और एक पहलू पर गौर करना भी जरूरी है। न तो यह मांग प्रान्त की अन्य जनजातियों के अधिकारों पर हमला है और न ही यह गैर–जनजाति अन्य दलित बिरादरियों के विरुद्ध है। आमतौर पर इस मांग के उठने पर सरकार यह प्रचार शुरू कर देती है कि जनजाति विकास के बजट की धनराशि सीमित है और एक नई जनजाति को अनुसूचित जनजाति में अगर शामिल कर लिया तो सुविधाएं बांटनी होंगी। सच यह है कि सरकार के पास सभी गरीबों के विकास के लिए फण्ड सीमित है और जो है वह इलाके के भ्रष्ट व दबंग लोग ही हजम कर जाते ह। कोलों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देना उनका मौलिक अधिकार है और जनजातियों के विकास के लिए फण्ड बढ़ाने का सवाल सभी जनजातियों के संघर्ष पर निर्भर है। उसी फण्ड का मिलना संभव है जिसके लिए संघर्ष मजबूती से होगा। यह किसी भी तरह से कोलों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से बाधक नहीं हो सकता। अगर एक नई जनजाति जुड़ेगी तो उसके लिए अलग फण्ड निर्धारित किए जाने का संघर्ष भी होगा।
दूसरा पक्ष यह है कि आदिवासी दर्जे की लड़ाई इलाके के अन्य गरीब दलित बिरादरियों के विरुद्ध नहीं है। जाहिर है कि अगर कोलों की जनजाति दर्जे की लड़ाई बढ़ेगी और ये अपने कुछ हक प्राप्त करने में सफल होंगे तो इससे कोई भी अन्य दलित व गरीब बिरादरी वंचित नहीं होगी, बल्कि ठेकेदार व जमींदार तबका ही वंचित होगा। जब जमींदार व ठेकेदार कमजोर होंगे तब अन्य गरीब व दलित बिरादरियों के अधिकारों के संघर्ष की संभावनाएं भी विकसित होंगी। अत: यह लड़ाई सभी गरीबों के जल, जंगल, जमीन पर अधिकार की पूरक है, न कि उसके विरुद्ध।
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