उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे बिहार की राजनीति पर गहरा एवं दूरगामी असर डालेंगे। पड़ोसी राज्य में नरेंद्र मोदी विरोधी दिग्गजों राहुल गांधी, मुलायम सिंह, अखिलेश यादव और मायावती के बुरे हश्र ने करीब सवा साल पहले बिहार में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों को प्रासंगिक बना दिया जब मोदी-शाह के ऐसे ही आक्रामक अभियान के बावजूद नीतीश कुमार ने अपने सियासी कौशल से चमत्कार कर दिया था।
कहने की बात नहीं कि उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। मिशन-2019 की दृष्टि से यह बड़ा सियासी संकेत है। बिहार के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के नतीजे ने स्पष्ट कर दिया कि सियासत में विकास के वादे और काम के इरादे ही आखिरकार काम आते हैं।
समाज को अगड़ा-पिछड़ा में बांटकर सत्ता में टिके रहना कठिन है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के एमवाई (मुस्लिम-यादव) फॉर्मूला तथा मायावती की तुष्टीकरण नीति को जनता ने खारिज कर दिया। मुकाबला अखिलेश सरकार की पांच वर्ष तथा मोदी सरकार की ढाई वर्ष की परफॉर्मेंस के बीच हुआ।
बिहार में भी इसी आधार पर फैसला हुआ था। सत्ता संघर्ष में अब सवर्णों में नहीं, बल्कि पिछड़ों-दलितों में ही प्रतिस्पर्धा है। इसलिए अब सिर्फ सब्जबाग नहीं चलेगा। सबको तरक्की चाहिए। सपा-कांग्र्रेस और बसपा की करारी हार से जदयू प्रमुख नीतीश कुमार को अप्रत्यक्ष तौर पर फायदा मिलना तय है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे के बाद भाजपा विरोधी प्रमुख चेहरों में नीतीश का नाम सबसे आगे है। हाल के दिनों में अखिलेश यादव ने इसमें सेंध लगाने की कोशिश की थी। पांच वर्षों के शासन ने उन्हें राष्ट्रीय ख्याति दी थी। शिकस्त के बाद दोनों नेताओं में अब मुकाबला नहीं रहेगा।
बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश ने जो करिश्मा दिखाया था, बाकी दिग्गज वैसा नहीं कर सके। नए तरीके से हो सकती है गोलबंदी उत्तर प्रदेश में भाजपा के सफल फॉर्मूले को बिहार भी अपना सकता है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में कुशवाहा समाज से केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया।
अपना दल की अनुप्रिया पटेल के जरिये पटेलों को साधा। भारतीय समाज पार्टी (भासपा) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर की ताकत लेकर अपने प्रतिद्वंद्वी दलों के आधार को कमजोर किया। भाजपा ने बहुमत की नब्ज को मजबूती से पकड़ा जिसने उसे अप्रत्याशित जीत दिलाई।