प्रधानमंत्री जी धनाभाव के कारण इलाज के बगैर जनता मर रही अच्छे दिन यही है
जब अच्छे दिन की बात प्रधान मंत्री करते है तो अस्पताल में ध्यान जाता है जहां जनता का जीवनभर की कमाई सहित खेत वगैरह बेचकर इलाज कराते कराते जब पैसा खत्म हो जाता है तो डॉक्टर इलाज करने से मना कर देता है और मरीज बिना इलाज असमय मौत के गले समा जाता है तब इंसान अपने किस्मत को कोसता है कि हम किस व्यवस्था वाली देश में रह रहे थे । जहां की सरकार अपने अवाम की इलाज करा पाने सक्षम नही है । जनता को बेहतर चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है। कोई संदेह नहीं कि चिकित्सा क्षेत्र में नित नई-नई योजनाएं भी बन रही हैं। मरीजों को तमाम सुविधाएं मुहैया कराने के दावे भी खूब किए जाते हैं, लेकिन बुनियाद बेहद कमजोर है। धरातल पर झांकने की जहमत नहीं उठाई जा रही है। योजनाएं तो बनी, लेकिन योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। अस्पतालों में न केवल विशेषज्ञों की कमी है, बल्कि स्टाफ नर्स तक की संख्या पर्याप्त नहीं है।
नरेंद्र मोदी जब देश में नोट बंदी किया तो एक वादा किया था की आप 50 दिन दुःख झेल लेना उसके बाद इमानदार और गरीब के अच्छा दिन आना शुरू हो जाएगा लेकिन देश और प्रदेश के बड़े अस्पतालों में आबादी के हिसाब से जीवन रक्षक उपकरण तक सरकार मुहैया नही करा पाई जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है मई अपने रिपोर्ट में कुछ चर्चित और सरकार के मुह पर तमाचा मारने वाली घटनए लिख रहा हूँ जो modi जी पढ़े और सोचे की दो साल में और क्या कर सकते है ?
हाल ही कि कुछ घटनाए जो देश की तंत्र पर तमाचा है यह घटना मध्यप्रदेश के सियोनी ज़िले की है, जहां 70 वर्षीय पार्वती बाई कई दिनों से बीमार चल रही थीं. तबीयत ख़राब होने के कारण परिजनों ने सरकारी एम्बुलेंस के लिए कई बार फोन किया, मगर एम्बुलेंस गांव नहीं आ पाई. हालत बिगड़ती देख बेटे धीवराज नगपुरे अपनी मां को मोटरसाइकिल पर ही लेकर चल पड़े. गांव से 12 किमी दूर जाते ही बाइक ख़राब हो गई और समय के अभाव में पार्वती बाई की मौत हो गई.
चंदौली के सकलडीहा कोतवाली क्षेत्र से, जहां एक कैंसर पीड़ित ने बीमारी से तंग आकर मौत को गले लगाना ही बेहतर समझा।
बीमारी से तंग आकर मौत को गले लगाने वाले मृतक गोवर्धन राजभर पिछले एक साल से ब्लड कैंसर से पीड़ित था। जिसका इलाज वाराणसी के बीएचयू में चल रहा था। इससे पहले प्राइवेट अस्पतालों में भी इलाज के लिए ले जाया गया। लेकिन महंगे इलाज और पैसों के अभाव के चलते अंत में बीएचयू ही जाना पड़ा।
लेकिन वहां भी गरीबी ने उसका पीछा नही छोड़ा, और समुचित इलाज नही हो पाया। जिससे गोवर्धन हमेसा दर्द व तनाव से ग्रसित रहता था, और बार-बार घर वालों से ट्रेन से कटकर मर जाने की बात करता रहता। पीड़ित के इलाज में परिवार के पास जो थोड़ी बहुत जमीन भी थी वो भी बिक चुका था।
जिसके बाद सभी दरबाजे बंद होते देख गोवर्धन ने आत्महत्या करना ही बेहतर समझा, घटना के बाद मौके पर पहुंचे परिजन भी अपने गरीबी को कोसते हुए रोते बिलखते रहे।
यह कौन है, जो हमारी आजादी के जश्न को भंग करने आ गया. यह कौन है जो ओलिंपिक में मिले दो पदकों के उत्साह को धूमिल करने का पाप कर रहा है. यह किस लोक का निवासी है, जिसमें इतना बल है कि दस किलोमीटर तक अपनी पत्नी के शव को लादे चला गया. उसकी बारह साल की बेटी जो जाहिर तौर पर हमारी किसी ‘बेटी बचाओ’ योजना का हिस्सा नहीं होगी, बिलखती रही, लेकिन उसके आंसू कालाहांडी के स्मार्ट सिटी न होने के कारण आंखों में ही सूख गए.
दाना माझी को चीखना नहीं आता. उसे ललकारना नहीं आता, तो उसकी आवाज कौन सुनता? पत्नी की मौत टीबी से हुई, मजेदार बात यह है कि हमारे विकसित होने को बेताब मुल्क में ऐसी बीमारी के लिए कोई जगह नहीं है. आपने कभी किसी सरकार के ”वादा पत्र” में टीबी से मुक्ति का जिक्र सुना है? जब जिक्र ही नहीं, तो चिंता तो दूर की कौड़ी है. यह कालाहांडी है क्या? यह वही जगह है जहां अकाल लंबे काल से डेरा डाले रहा है. यह वह जगह है जहां पहुंचने से पहले सरकार की दबंग, दमदार और स्मार्ट योजनाएं दम तोड़ देती हैं. अगर विस्तार से और दुखी करने वाली जानकारी चाहिए तो स्वर्गीय आलोक तोमर की किताब ‘हरा-भरा अकाल’ एक मुकम्मल दस्तावेज है. ‘हरा-भरा अकाल’ हमें बताता है कि अकाल कैसे व्यवस्था और सरकार के लिए कमाल का अवसर है.
तो ऐसे कई अकालों और राहतों का मर्सिया है कालाहांडी और उसका ताजा प्रतिनिधि है दाना माझी. माझी से हमें दशरथ माझी भी याद आ गया. वही दशरथ माझी जिसने अपनी पत्नी का इलाज नहीं होने देने के लिए दोषी पहाड़ को काटकर गिरा दिया था, बिना किसी सरकार के, बिना किसी स्मार्ट योजना के. उसने अपने हौसले से पहाड़ को मनुष्य की शक्ति का बोध कराया था. दोनों माझी में एक बात यह साझी है कि दोनों अपने-अपने प्रेम में कितने कोमल और अपने निश्चयों के धनी हैं. दाना माझी क्या सोच रहे होंगे… अमंग देई के शव को कंधों पर लादे हुए! कंधे पर अमंग को लेकर चलते हुए उसे क्या कुछ याद आ रहा होगा? उसके साथ दौड़ रही बेटी के आंसू और पत्नी का शव मिलकर दाना की मनोस्थिति को कितना व्याकुल कर रहे होंगे. उसे शायद प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के सपने और भाषण भी याद आ रहे होंगे. उसे लोकतंत्र की उन रस्मों की याद नहीं आ रही होगी.. जिसकी हर पांच साल बाद उसे कसम दिलाई जाती है!
दाना को ओडिशा सरकार की उस योजना की भी याद आई होगी, जिसे नवीन पटनायक सरकार ने फरवरी में शुरू किया था.. ‘महापरायण’ योजना. जिसके तहत शव को सरकारी अस्पताल से मृतक के घर तक पहुंचाने के लिए मुफ्त परिवहन की सुविधा दी जाती है. तो यह दाना को क्यों नहीं मिली. क्या यह योजना उस जिला मुख्यालय के अस्पताल तक पहुंचने से पहले विकलांग हो गई, जहां टीबी से अमंग की मौत हुई. माझी ने बहुत कोशिश की लेकिन इस देश में सब कुछ आपकी हैसियत से तय होता है. यहां तक कि निजी अस्पताल में आपका इलाज भी. इसी जून में विकसित एनसीआर, गाजियाबाद में मुझे अपने सभी मित्रों की मदद इस बात के लिए लेनी पड़ी कि एक अन्य मित्र को सड़क दुर्घटना के बाद एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया जा सके, जेब में पूरे पैसे और मेडीक्लेम के बाद भी. तो माझी की विवशता हम कैसे लिख सकते हैं. उसके मन में हम लोकतंत्र के लिए सम्मान कैसे हासिल कर पाएंगे…
माझी को मदद उसी मीडिया से मिली जो इन दिनों सबके निशाने पर है. जब उन्हें अस्पताल के अधिकारियों से किसी तरह की मदद नहीं मिली तो उन्होंने पत्नी के शव को एक कपड़े में लपेटा और कंधे पर लादकर भवानीपटना से करीब 60 किलोमीटर दूर रामपुर ब्लॉक के मेलघारा गांव के लिए पैदल चलना शुरू कर दिया. इसके बाद कुछ स्थानीय संवाददाताओं ने उन्हें देखा. जिला कलेक्टर को फोन किया और फिर शेष 50 किलोमीटर की यात्रा के लिए एक एम्बुलेंस की व्यवस्था की गई.
हर छोड़ी बड़ी बात में निराश, मरने-मारने को आतुर शहरी समाज को दाना माझी से सब्र, प्रेम का सबक सीखना चाहिए, और जिद का भी. लाश को कंधे पर लादे यह जो दाना जा रहा है, वह अपनी जीवन संगिनी नहीं हमारी व्यवस्था की लाश ढो रहा है.
कहने को मुल्क बदल रहा है, परिवर्तन के नारों से आकाश तक आतंकित हो रहा है, लेकिन दाना माझी और उसके जैसे अनगिनत नागरिक जीवन के समंदर में लाशों को उठाए दौड़ रहे हैं.
कुछ जिंदा, कुछ मुर्दा. अलविदा अमंग… तुम्हें दाना पर गर्व होना चाहिए…
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