लखनऊ। डेढ़ दशक बाद यह पहला मौका है, जब चुनाव का गणित उत्तर प्रदेश में बदला हुआ दिखाई दे रहा है। बीते तीन विधानसभा चुनावों में असली जंग बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच ही होती रही जबकि भाजपा इन सबकी पिछलग्गू बनती रही है। लेकिन, इस चुनाव में भाजपा पूरे प्रदेश में लड़ रही है। इस बार परिदृश्य पूरी तरह अलग है। कहीं सपा तो कहीं बसपा भाजपा से ही लड़ रही हैं।
भाजपा ने भले चुनाव में मुख्यमंत्री का ऐलान नहीं किया हो, मगर उसकी सबसे बड़ी ताकत नरेंद्र मोदी का चेहरा है।
इसी ताकत से पार्टी का मनोबल सातवें आसमान पर है। पूर्वांचल में भाजपा को अपनी सहयोगी पार्टियों अपना दल और भारतीय समाज पार्टी के प्रदर्शन पर पूरा भरोसा है। बाकी बचे चुनावी क्षेत्रों में इन दलों का मजबूत आधार है और भाजपा का साथ उन्हें सबसे आगे खड़ा कर रही है। यहां उनका प्रदर्शन भाजपा के लिए बोनस होगा। इसलिए भाजपा नेतृत्व सहयोगी दलों के उम्मीदवारों को जिताने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहा। सभी सहयोगी दलों में आपसी तालमेल भी दिख रहा है।
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पार्टी ने अपनी कमजोरियों को चिह्नित कर लिया था। उसी का नतीजा है कि सामाजिक समीकरणों का पूरा ध्यान रखते हुए भाजपा ने अपने प्रत्याशियों को उतारा है। जौनपुर के इंदुप्रकाश कहते हैैं कि, ‘पहली बेर लागत बाय कि भाजपा केवल सवर्णों की पार्टी नहीं, सबहि को साथ लेइ के चलत बाय। जिसकी जितनी हिस्सेदारी चुनाव में उतनी भागीदारी के आधार पर टिकट वितरण किया गया। इसीलिए जिन सीटों पर चुनाव दर चुनाव सिर्फ सवर्ण प्रत्याशी ही उतारे जाते थे, वहां टिकट बंटवारे ने लोगों को चौंकाया है। इसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया में भले ही आक्रोश दिखा हो, लेकिन समय बीतने के साथ ही वह थम गया।
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नोटबंदी को मुद्दा बनाकर विपक्षियों ने केंद्र सरकार को जमकर घेरा और देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन ओडिशा और महाराष्ट्र के पंचायत व शहरी निकाय चुनाव के नतीजे अलग ही कहानी सुना गए। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी नोटबंदी को लेकर लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएं हैं और इस बार उत्तर प्रदेश चुनाव की मतपेटी से चौंकाने वाले परिणाम मिल सकते हैं।
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कुछ हद तक यह बात सही है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को 2017 विधानसभा चुनाव में दोहराना भाजपा के लिए आसान नहीं है। प्रदेश के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और इनमें विधानसभा और जिले स्तर के सामाजिक समीकरण भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। बसपा और सपा जैसे मजबूत सामाजिक आधार वाले दल समाज के बड़े वर्ग लगभग 38 फीसद (10 फीसद यादव, 17 फीसद मुसलमान और 11 फीसद जाटव) मतों की ताकत के सहारे अबतक भाजपा को रोकते रहे थे। जाहिर है, भाजपा के सामने बाकी बचे सामाजिक समूहों (सवर्ण, गैर यादव पिछड़ों और गैर जाटव दलितों) के ध्रुवीकरण की बड़ी चुनौती थी। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के उम्मीदवारों की जाति का आकलन बताता है कि पार्टी व्यावहारिक सामाजिक संतुलन कायम रखने में सफल रही है।
उधर, दूसरी ओर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन पर उनके केंद्रीय नेताओं के बीच तालमेल भले ही चुनावी मंच पर दिखाई दे रहा हो, लेकिन जमीनी हकीकत इससे मेल नहीं खाती है। केराकत के रहने वाले कुंजबिहारी का कहना है कि, ‘बचपन से काल्ह तक जेसे दुश्मनी रहल अउर आज लखनऊ में बइठि के एकै दिन में दोस्ती क ऐलान कइले से थोड़ों ने दोस्ती होइ जाई। यानी सपा और कांग्रेस के बीच की लगभग तीस सालों की लड़ाई की कड़वाहट चंद कुछ दिनों के भीतर सुधर नहीं सकती है। यही वजह है जो यह सुनने में आ रहा है कि कई जगह दोनों दलों के प्रतिबद्ध मत एक दूसरे को ट्रांसफर नहीं हो पा रहे। ओडिशा और महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनाव में जिस तरह कांग्रेस की हालत पतली हुई है, उसका असर बचे उत्तर प्रदेश के बचे दोनों चुनावी चरणों में दिख सकता है।