अपनी ही प्रतिध्वनि को सुनने की प्रवृति शायद सबसे ज्यादा भ्रमात्मक होती है. लगता है पूर्वी उत्तर प्रदेश में बीजेपी इसी प्रवृति के पाश में बंधती जा रही है. याद रहे ये वही इलाका है जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सियासी कद दांव पर है.
मार्क ट्वेन ने कभी बनारस के लिए लिखा था कि यह ‘इतिहास से पुराना, परंपराओं से प्राचीन, पौराणिक कथाओं से भी पहले का और यहां तक कि इन्हें एक साथ मिला दिया जाए तो उससे भी दोगुना पुराना दिखता है.’
इस लिहाज से यह माना जा सकता है कि इस धार्मिक नगरी में जमीनी समझ इंसानी सीमाओं से परे है. लेकिन बीजेपी के लिए चिंता की बात है कि प्रधानमंत्री के इस विधानसभा क्षेत्र से पार्टी के पैरों तले राजनीतिक जमीन खिसकती जा रही है.
सवाल उठता है कि क्या इसे मोदी के प्रति लोगों का मोहभंग का संकेत माना जा सकता है? जो संकेत बनारस से आ रहे हैं उन्हें ब्लैक एंड वाइट में पढ़ना अति सरलता होगी. बनारस दुनियाभर में सबसे रहस्यमयी शहरों में से एक है, तो यहां के लोग संवाद के जरिए मतलब की बात करने में माहिर माने जाते हैं. शुरुआत में ये संवाद भले अस्पष्ट लगें, लेकिन इसमें छिपा मतलब होता बहुत सीधा है.
बीजेपी ‘अंक’गणित साधने की कोशिश में
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि बनारस की जनता आखिर क्या संदेश देना चाहती है. खासकर तब जबकि 8 मार्च को पूर्वी यूपी में अंतिम चरण के चुनाव के साथ ही ये इलाका भी चुनावी तैयारियों में जुट चुका है. बनारस की आठों विधानसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवारों के चयन की वजह से पार्टी की हालत नाजुक दिखती है. लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने उम्मीदवारों के चयन में स्थानीय राय की जगह चुनावी विश्लेषण पर ज्यादा गौर किया है.
जहां तक जातिगत समीकरण को साधने का सवाल है, तो हिंदुत्व के दायरे में पिछड़ा वर्ग को शामिल करने के लिए गैर-यादव जाति के उम्मीदवारों को चयन करने की रणनीति सही दिखती है. लेकिन कहना जितना आसान है उतना ही कठिन इसे करना है. क्योंकि पॉलिटिक्स जितना मैथमेटिक्स है उतना ही कैमेस्ट्री भी.
बनारस और उससे सटे पूर्वी यूपी के कई जिलों में ये साफ नजर भी आता है. क्योंकि यहां का समाज एक-दूसरे पर काफी आधारित है.
बहुत कम लोगों को याद होगा कि कोलासला विधानसभा सीट से दिग्गज कम्युनिस्ट पार्टी के नेता उदल को तब बीजेपी में नए शामिल हुए अजय राय ने शिकस्त दी थी. जबकि उदल इस सीट से नौ बार चुनाव जीत चुके थे और उनके समर्थकों की संख्या कम नहीं थी. तब किसी भी स्तर पर राय उनके साथ मुकाबला करने के काबिल नहीं थे. बावजूद वोटरों ने तब उदल की जगह राय को चुना. क्योंकि उदल का चुनाव कर मतदाता एक तरह से थक चुके थे.
बीजेपी की जगह नई पसंद चुनेगा बनारस
इसी तरह से बनारस बीजेपी का गढ़ माना जाता रहा है. लेकिन अब यहां तेजी से हालात बदल रहे हैं. इसकी वजह सियासी एकरूपता है क्योंकि मतदाता इस सीट से बीजेपी उम्मीदवार को लगातार जिताते रहे हैं. और तो और मतदाता इन उम्मीदवारों की वही पुरानी बातें जिनका अर्थ अब खत्म हो चुका है, सुनकर उकता चुके हैं.
मसलन, काशी (बनारस का पुराना नाम) को क्योटो (जापान का सबसे प्राचीन शहर) बनाने का वादा सुनते-सुनते लोग अब थक चुके हैं. यही हाल गंगा की सफाई, उसकी पवित्रता और गौरव को लौटाने को लेकर भी है. इसी तरह मोदी ने जब बनारस लोकसभा सीट का चुनाव किया तो लोगों की उम्मीदें कई गुना बढ़ गईं. लोगों को लगा कि अब इलाके में विकास और रोजगार के अवसर जरूर पैदा होंगे.
इसमें दो राय नहीं कि पिछले ढाई वर्षों में लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. लेकिन लोगों की बढ़ती अपेक्षाओं के मुकाबले ये काफी कम है. अगर बनारस शहर में आप घूमें तो शहर में हर जगह आपको धूल मिलेगी. शहर की बुनियादी सुविधाओं का जाल नौकरशाहों की लापरवाही के चलते लगातार उलझता जा रहा है. शहर के कुछ हिस्सों में सड़क और फ्लाईवे का काम कछुए की रफ्तार से बढ़ रहा है. इससे लोगों की जिंदगी पहले के मुकाबले काफी कठिन हो गई है.
मोदी के वादे पूरे नहीं हुए
इस बात की भी कई मिसालें हैं कि अखिलेश यादव की सरकार ने जान-बूझकर राजनीतिक कारणों के चलते उन परियोजनाओं में देरी करवाई है जिन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय ने शुरू किया था. लेकिन सियासी तौर पर इससे प्रधानमंत्री की छवि को धक्का पहुंचा है. इसके साथ ही परंपरागत सिल्क और कपड़ा उद्योग को वापस पटरी पर लाने का वादा भी अब तक कागजी साबित हुआ है.
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी ने गंगा सफाई का भरोसा दिलाया था. इससे लोगों की अपेक्षाएं काफी बढ़ गई थीं. क्योंकि गंगा सभ्यता से जुड़ी है और धार्मिक सीमाओं को लांघती है. अब तक गंगा सफाई को लेकर जो भी प्रयास किए गए हैं वो काफी सतही हैं. जनता इसका समर्थन नहीं करती है. मिसाल के तौर पर स्थानीय मल्लाह को ई-बोट्स दिए गए लेकिन वो शोपीस बन कर रह गई हैं. हां, असीघाट के करीब रिवरफ्रंट के कुछ हिस्से पर साज-सज्जा जरूर दिखती है लेकिन भारी बदलाव के वादे के मुकाबले ये बेहद कम नजर आता है.
गंगा की तरह ही बनारस भी ज्ञान साधना का केंद्र है. यहां कई यूनिवर्सिटी और लर्निंग सेंटर हैं. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी को दुनिया भर में प्रचारित प्रसारित किया जा सकता है. लेकिन कैंपस में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. इसे बेहद गैर-पेशेवर अंदाज में संचालित किया जा रहा है.
प्रधानमंत्री के डिजिटाइजेशन और कैंपस को वाई फाई जोन बनाने पर जोर देने के बावजूद यूनिवर्सिटी प्रशासन ने अब तक कुछ खास नहीं किया है. यूनिवर्सिटी प्रशासन से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि ‘हमें रोजाना छात्रों की नाराजगी झेलनी पड़ती है.’
बीजेपी को लग सकता है झटका
साफ है कि मतदाताओं का बीजेपी से मोहभंग है. खास कर सरकारी मशीनरी के कामकाज और खोखले वादों से जो खास मायने नहीं रखते. हालांकि ये विडबंना है कि मोदी के प्रति लोगों में अभी भी दिलचस्पी बनी हुई है. लेकिन नौकरशाहों के साथ साथ उनकी पार्टी मशीनरी ही उनके अभियान में रोड़े अटकाती है.
बनारस में तो इस तरह का सियासी आचरण काफी स्पष्ट है. लेकिन अब यही ट्रेंड पूर्वी यूपी में भी देखने को मिल रहा है. जो बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा अहम है.
इस बात की प्रबल संभावना है कि इस बार के चुनावी नतीजे उन्हें निराश कर सकते हैं, जिन्होंने चुनाव को महज चुनावी विश्लेषण का खेल मानकर अपने इर्दगिर्द खड़ा किए गए सहूलियत की दीवारों के पार सच्चाई जानने की कोशिश नहीं की है.
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