भारत की पहली जंग-ए-आजादी को हमेशा इस तरह से याद किया जाता है कि यही वो पहली चिंगारी थी जिसने आने वाले 90 वर्षों तक हिंदुस्तानियों के दिलों में आजादी की अलख को जलाए रखा. इस एक बात के अलावा जितने भी किस्से-कहानियां (उस विद्रोह को लेकर) हमारी याददाश्त में महफूज हैं उनका एक बड़ा हिस्सा, देशवासियों को, उस युद्ध में मिली विफलताओं पर आधारित है.
इसकी वजह दरअसल ये है कि इस संग्राम के बाद भारतीय जन-जीवन पर इसके असर को इतिहासकारों ने हमेशा भारतीय चश्मे से देखा. बहुत कम ऐसे इतिहासकार थे जिन्होंने ब्रिटिश राजशाही और ब्रिटिश प्रशासन के चश्मे से इन नतीजों का जायजा लिया. और जिन्होंने इसे उस चश्मे से देखा उन्होंने महसूस किया कि दरअसल इस विद्रोह ने भारत पर ब्रिटिश हुक्मरानी की मुहर लगाई थी.
इस सच्चाई से कामो-बेश किसी को इंकार नहीं है कि ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ को, भारतीयों से, इतने तीव्र विरोध की अपेक्षा शायद नहीं थी. वो तो भारतवासियों की नर्म-दिली की भूर-भूर प्रशंसा किया करते थे और उनकी अज्ञानता को अपने व्यापार के लिए शुभ मानते थे. भारतीय इतने व्यापक विद्रोह के साथ खड़े हो सकते हैं, ये तो उनके लिए सपने जैसी बात थी.
ब्रिटिश राज के लिए 1857 की क्रांति चौंकाने वाली थी
बहरहाल जो होना था वो हुआ. हालांकि अंग्रेजों के दृष्टिकोण से देखें तो ये सबकुछ अचानक हुआ था लेकिन विद्रोही इतने भी संगठित नहीं थे कि वो इस आग को बंगाल, बंबई और मद्रास जैसे सूबों तक फैला सकते. नतीजा ये हुआ कि जिस तेजी से विद्रोह उठा उतनी ही तेजी से उसे कुचल भी दिया गया.
ब्रिटिश-राज्य के लिए, जिसने भारत में अपने लिए कभी चुनौती का सामना नहीं किया था, 1857 की क्रांति, चौंकाने वाली थी. और फिर वो आत्मविश्लेषण हुआ जिसके लिए अंग्रेज जाने जाते हैं. ये जरूर है कि अपनी सूझ-बूझ से उन्होंने विद्रोह को निर्ममता से कुचल दिया लेकिन इससे ज्यादा चिंता उन्हें कंपनी के उखड़ चुके कदमों की थी. वो किसी भी हाल में भारत की संपदा को खोने के लिए तैयार नहीं थे.
उन्हें ये समझते देर नहीं लगी कि कंपनी का इकबाल खत्म हो चुका है इसलिए विद्रोह को कुचलने के साथ ही साथ उतनी ही निर्ममता से कंपनी के कार्यकलापों का अंत भी कर दिया गया.
2 अगस्त 1958 को ब्रिटेन-पार्लियामेंट ने एक बिल पास करके ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकारों का विलय बिरतानवी राजशाही में कर लिया. यकीनन इसे 1857 के संग्राम की कामयाबी के रूप में ही देखा जाना चाहिए.
ये बात दूसरी है कि चूंकि उस समय 1947 जैसी तैयारी हमारे पास नहीं थी इसलिए ईस्ट-इंडिया-कंपनी को हारने के बाद का विकल्प हमारे पास नहीं था इसलिए कंपनी की जगह भारत को सीधे तौर पर ब्रिटिश-क्राउन के अधीन कर लिया गया. अंग्रेज ये समझ चुके थे कि महज दादागीरी के नाम पर बहुत दिनों तक भारतीय समर्थन हासिल नहीं किया जा सकता था.
भारत में उपजे विद्रोह ने अंग्रेजों को खुद की कमजोरियां दिखाई थीं
इसी के साथ शुरू हुआ हुकूमत और प्रशासन में सुधारों का सिलसिला. अंग्रेजों के आत्मविश्लेषण में ये भी सामने आया कि कंपनी की हुकूमत में बहुत सी खामियां थीं जिनमें तुरंत सुधार की जरूरत थी. विद्रोह ने खुद उनपर उनकी कमजोरियों को उजागर कर दिया था.
इसलिए पहले सुधार के तौर पर सेना के पुनर्गठन का काम शुरू हुआ. इंग्लैंड को ये सिफारिश भेजी गई कि भारत में ब्रिटिश-साम्राज्य की सुरक्षा के लिए जरूरी यूरोपीय सैनिकों की संख्या 80,000 होगी. यह फैसला भी हुआ कि देश के विभिन्न हिस्सों से देशी सिपाहियों की भर्ती की जाएगी, ये अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले होंगे ताकि उनके बीच एकता को रोका जा सके.
एक और महत्वपूर्ण कदम 1859 में एक अधिनियम लाकर किया गया जिसके तहत स्थानीय मजिस्ट्रेट को घरों में घुसकर हथियारों की खोज करने की शक्ति दे दी गई. यानि सिर्फ संदेह के आधार पर किसी के भी घर में घुसा जा सकता था और अगर हथियार न मिले हों लेकिन संदेह बरकरार हो तो मजिस्ट्रेट उस शख्स की निजी संपत्ति को तब तक जब्त कर सकता था जब-तक हथियारों को सौंप न दिया जाए. इसके अलावा जेल या शारीरिक दंड के लिए सात साल की सजा भी हो सकती थी.
विद्रोह के बाद अंग्रेज भारतीयों के साथ रहने में भी डर रहे थे
इसी विद्रोह के बाद देशभर में बसे हुए शहरों से कुछ फासले पर नए ठिकाने निर्माण करने की परंपरा शुरू हुई. जैसे शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली) से अलग, नई दिल्ली को बसाना. ऐसे ही हर शहर में सिविल-लाइंस या कैंटोनमेंट के इलाके बने. दरअसल विद्रोह के बाद अंग्रेज इतना डर गए थे कि वो भारतीयों के साथ रहने में भी असुरक्षा महसूस कर रहे थे.
वैसे तो ब्रिटिशों में असुरक्षा की भावना सभी भारतीयों को लेकर थी लेकिन मुख्य निशाना मुस्लिम समुदाय था क्योंकि वो उन्हें ही इस विद्रोह का असली जिम्मेदार मानते थे. इसलिए उनपर जुल्म भी कुछ ज्यादा ही हुए. मुगल बादशाह बहादुर शाह (द्वितीय) के दो बेटों कि हत्या कर दी गई और बादशाह को रंगून भेज दिया गया.
अंग्रेजों के साथ लड़कर हमने अपने हक के लिए लड़ना सीखा
कंपनी की हुकूमत के समाप्त होने के बाद, ब्रिटिश-सरकार ने भारत में एक नई प्रणाली स्थापित की. लंदन में एक पद (सचिव- भारत राज्य) का सृजन किया गया जो भारतीय मामलों के लिए जिम्मेदार था. इसके अलावा, कोलकाता में भारत के गवर्नर-जनरल (तब कलकत्ता) को भारत के वायसराय का नया खिताब दिया गया, जो सम्राट का व्यक्तिगत प्रतिनिधि होगा. ब्रिटेन की राजशाही के लिए वायसराय का पद, और शायद भारत भी, इतना महत्वपूर्ण था कि 19वीं शताब्दी के अंत तक, ब्रिटेन के कुछ सबसे प्रमुख नेता ही इसके लिए नामित किए जाते रहे.
इस तरह हिंदुस्तान पर ब्रिटिश हुकूमत का कार्य-काल केवल 89 वर्ष ही रहा. और यही वो 89 वर्ष हैं जिनमें हमने भारत एक राष्ट्र की कल्पना को जन-जन तक पहुंचाया. इस बीच अंग्रेजों द्वारा हमारी संपदा का दोहन जरूर हुआ लेकिन अंग्रेजों के साथ रहकर हमने खुद को इस लायक भी बनाया कि अपने अधिकारों के लिए खड़े हो सके.
sabhar