दिल्ली दंगों में तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने के दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कई सवाल उठाए और कहा कि आतंकवाद रोधी कानून, यूएपीए को इस तरह से सीमित करना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसका पूरे देश में असर हो सकता है। इसके साथ न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने वाले उच्च न्यायालय के फैसले को अदालतें नजीर के तौर पर ऐसी ही राहत के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगी।
जस्टिस हेमंत गुप्ता और वी रामसुब्रमण्यम की अवकाशकालीन पीठ ने कहा कि हमारी परेशानी यह है कि उच्च न्यायालय ने जमानत के फैसले में पूरे यूएपीए पर विचार करते हुए ही 100 पृष्ठ लिखे हैं।
शीर्ष अदालत को इसकी व्याख्या करनी होगी। कई सवाल हैं, जो इसलिए खड़े हुए कि उच्च न्यायालय में यूएपीए की वैधता को चुनौती नहीं दी गई थी। ये जमानत अर्जियां थीं, लेकिन कोर्ट ने इस कानून की वैधता पर ही निर्णय सुना दिया।
न्यायालय ने इन छात्र कार्यकर्ताओं जेएनयू की नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और जामिया विवि के छात्र आसिफ इकबाल को नोटिस जारी कर उनसे जवाब मांगे हैं। तीनों आरोपियों को जमानत देने वाले उच्च न्यायालय के फैसलों पर रोक लगाने से इनकार करते हुए पीठ ने कहा कि किसी भी अदालत में कोई भी पक्ष इन फैसलों को मिसाल के तौर पर पेश नहीं करेगा।
इस मामले पर 19 जुलाई को शुरू हो रहे हफ्ते में सुनवाई की जाएगी।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह दलील दी कि उच्च न्यायालय ने 15 जून को तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देते हुए पूरे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून (यूएपीए) को पलट दिया है।
उन्होंने कहा कि वह नहीं चाहते कि अभियुक्त जमानत पर बाहर आ गए हैं तो उन्हें अंदर भेजा जाए, लेकिन इस फैसले पर जरूर रोक लगाई जाए।
छात्र कार्यकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि उच्चतम न्यायालय को यूएपीए के असर और व्याख्या पर गौर करना चाहिए ताकि इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत से फैसला आए।
सुनवाई की शुरुआत में मेहता ने उच्च न्यायालय के फैसले का उल्लेख किया और कहा, इसमें पूरे यूएपीए को सिरे से पलट दिया गया है। उन्होंने दलील दी कि इन फैसलों के बाद तकनीकी रूप से निचली अदालत को अपने आदेश में ये टिप्पणियां रखनी होगी और आरोपियों को बरी करना होगा।