इस साल दिवाली में दिल्ली सहित देश के कई राज्यों में पटाखों पर बैन लगाने से शिवकाशी के पटाखा इंडस्ट्री की हालत खराब है. दो नौजवानों द्वारा 1930 के दशक में माचिस का कारखाना लगाने के बाद तमिलनाडु के विरुधुनगर जिले के शिवकाशी में पटाखे और आतिशबाजी के सामान भी बनने लगे और आज यह देश में पटाखा निर्माण का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है.
दो नौजवानों द्वारा 1930 के दशक में माचिस का कारखाना लगाने के बाद तमिलनाडु के विरुधुनगर जिले के शिवकाशी में पटाखे और आतिशबाजी के सामान भी बनने लगे और आज यह देश में पटाखा निर्माण का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है. हालांकि, इस साल दिवाली में दिल्ली सहित देश के कई राज्यों में पटाखों पर बैन लगाने से शिवकाशी के पटाखा इंडस्ट्री की हालत खराब है. आइए जानते हैं कि क्या है शिवकाशी में पटाखा निर्माण का इतिहास और कितना है यहां का कारोबार…
भारत में कब शुरू हुई आतिशबाजी
भारत में जंगों में बारूद का इस्तेमाल पहली बार 1400 ईस्वी के आसपास शुरू हुआ. इस तरह भारत में पटाखों के शुरुआत का इतिहास भी इसी के आसपास का है. बारूद की खोज चीन में 11वीं सदी के आसपास हुई थी. कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, आतिशबाजी का पहला ऐतिहासिक प्रमाण 1443 के आसपास विजयनगर साम्राज्य में मिलता है. 18वीं सदी तक शासकों द्वारा दिवाली पर आतिशबाजी आम बात हो गई.
शिवकाशी कैसे पहुंचा पटाखा
भारत में पटाखों-आतिशबाजी का पहला कारखाना 19वीं सदी में कोलकाता में स्थापित किया गया. एक कहानी के अनुसार 1923 के आसपास यहीं की एक माचिस की फैक्ट्री में काम करने वाले शिवकाशी के दो नौजवान वर्कर अय्या नाडर और शणमुगा नाडर बाद में इस माचिस और आतिशबाजी की तकनीक को अपने होमटाउन लेकर गये और वहां इसकी शुरुआत की. यहीं से आतिशबाजी और पटाखों का भी निर्माण शुरू हुआ और पहले एक, फिर इस तरह से हर साल वहां कारखानों की संख्या बढ़ने लगी. अय्या नाडर ने 1925 में नेशनल फायरवर्क्स की स्थापना की.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आयी तेजी
शिवकाशी चेन्नई से करीब 500 किमी दूर एक छोटा-सा शहर है. साल 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब पटाखों और आतिशबाजी के सामान के आयात पर रोक लग गई तब यहां की इंडस्ट्री का वास्तविक विकास शुरू हुआ. 1939 के पहले शिवकाशी में गिने-चुने कारखाने ही थे. देश में पटाखों की कमी होने की वजह से शिवकाशी से मांग काफी बढ़ गई. देश में अंग्रेज शासकों ने पटाखों के आयात पर रोक लगायी और घरेलू उद्योगों का विकास किया, इससे घरेलू पटाखा इंडस्ट्री को काफी फायदा हुआ. आजादी के बाद शिवकाशी पटाखों का देश का सबसे बड़ा केंद्र बन गया.
कितना है कारोबार
आज शिवकाशी में करीब 1100 लाइसेंसधारी पटाखा कारखाने हैं. इन कारखानों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 8 लाख कामगारों को रोजगार मिला हुआ है.इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी होती हैं.
नाडर परिवार की 1942 में स्थापित स्टैंडर्ड फायर वर्क्स और श्री कालिश्वरी फायर वर्क्स आज देश की दो सबसे बड़ी पटाखा निर्माता कंपनियों में से एक हैं. इन कंपनियों के मुर्गा, मोर, घंटी, गिलहरी, अनिल और स्टैंडर्ड ब्रांड पटाखे मशहूर हैं. भारत में करीब 90 फीसदी पटाखे शिवकाशी में ही बनते हैं. इनका सालाना टर्नओवर करीब 5 हजार करोड़ रुपये का है.
शिवकाशी एक छोटा-सा शहर है जिसका एरिया करीब 7 वर्ग किलोमीटर के आसपास ही है. यहां का शुष्क और गर्म जलवायु पटाखों और माचिस निर्माण की इंडस्ट्री के लिए काफी मुफीद है. आज चीन के बाद भारत दुनिया में पटाखों, आतिशबाजी के सामान का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादन केंद्र बन गया है.
इन पटाखों के लिए कच्चा माल केरल और अंडमान से आता है. यही नहीं शिवकाशी प्रिंटिंग और कपड़ा उत्पादन का भी बड़ा केंद्र है. देश में प्रिंट होने वाली डायरियों का करीब 30 फीसदी हिस्सा यहीं से आता है.
दिवाली है इनके लिए सबसे बड़ा त्योहार
गौरतलब है कि शिवकाशी में पटाखों की सालाना बिक्री का करीब 70 फीसदी हिस्सा दिवाली के दौरान ही होता है. इस साल यहां कोविड की वजह से पहले ही उत्पादन में करीब 30 फीसदी की गिरावट आ चुकी थी. शिवकाशी में साल के 300 दिन पटाखे बनते हैं. दिवाली के दिन हम भारतीय जो तीन घंटे में पटाखे फूंक देते हैं वह इन श्रमिकों की करीब 300 दिन की मेहनत होती है. इन कारखानों में हर साल 20 से 25 कर्मचारियों की मौत भी हो जाती है, लेकिन यहां के लाखों लोगों के लिए जीविका का यही एकमात्र साधन है.
इन कारखानों से करीब 90 फीसदी माल उत्तर भारत में खपत होता है और खासकर वह भी दिवाली के दिनों में. अंतिम समय में पटाखों पर रोक लगाने से करीब 50 फीसदी माल कारखानों में ही रह जाएगा और आगे फैक्ट्रियों को उत्पादन रोकना पड़ेगा. यानी जो अस्थायी श्रमिक हैं उनको महीनों तक रोजगार नहीं मिलेगा.