सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि अदालत के प्रति सम्मान अपने आप आना चाहिए, यह मांगा नहीं जाना चाहिए और अधिकारियों को तलब करके सम्मान में वृद्धि नहीं हो जाती है। कुछ उच्च न्यायालयों द्वारा अधिकारियों को तुरंत तलब किए जाने के चलन के प्रति असहमति जताते हुए शीर्ष न्यायालय ने शुक्रवार को यह टिप्पणी की। न्यायालय ने कहा कि इन आदेशों से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन की जो रेखा है, उसे लांघना पड़ता है।
शीर्ष अदालत ने शक्तियों के विभाजन के बारे में पहले के एक फैसले का जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि न्यायाधीशों को अपनी सीमाएं पता होनी चाहिए। उन्हें शासकों की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए बल्कि उनमें विनम्रता और दयालुता का भाव होना चाहिए। वरिष्ठ अधिकारियों को तलब करने के चलन की निंदा के संबंध में टिप्पणी न्यायमूर्ति एस के कौल और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ के उस फैसले में आई, जिसमें सेवा के एक मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ की एकल पीठ और खंडपीठ के फैसलों को रद्द किया गया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया था कि उत्तराखंड के एक स्थान से 6 मार्च, 2002 को तबादला किए जाने के बाद से 13 साल तक राज्य के बदायूं में अपने कार्यस्थल पर नहीं जाने वाले डॉक्टर मनोज कुमार शर्मा का पिछला 50 प्रतिशत वेतन दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति गुप्ता ने पीठ के लिए फैसला लिखते हुए कहा, कुछ उच्च न्यायालयों में अधिकारियों को तत्काल तलब करने और प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव बनाने का चलन विकसित हो गया है।
पीठ ने कहा कि कार्यपालिका के अधिकारी भी सरकार के अंग के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और अधिकारियों के फैसले या कार्रवाई उनके खुद के फायदे के लिए नहीं होते। बल्कि प्रशासन के हित में तथा सरकारी कोष के संरक्षक के रूप में कुछ फैसले लेने को विवश होना पड़ता है। न्यायालय ने कहा, उच्च न्यायालय को ऐसे फैसले रद्द करने का हमेशा अधिकार है, जो न्यायिक समीक्षा पर खरा नहीं उतरते लेकिन बार-बार अधिकारियों को तलब करना बिल्कुल उचित नहीं है। इसकी कड़े से कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए।