ग्रामीण परिवेश में इसे जिदा रखने के लिए सुदिष्ट बाबा के धनुषयज्ञ मेला में इस बार भी सासाराम के दर्जनों पत्थर मजदूर अपनी दुकानें सजाई है। यहां इनका बिक्री तो कम हो रही है कितु नई पीढ़ी इस पुराने संसाधनों से रू-ब-रू हो रही है। सासाराम से वर्षों से धनुषयज्ञ मेले में पत्थर के सामान को बेचने दुकानदार आते हैं। हाथ से चलाने वाली पत्थर की चक्की (जांता) सिलबट्टा, लोढ़ा आदि की दुकानें सजाते हैं, लेकिन इस साल उनकी बिक्री नहीं होने से सभी के चेहरे पर उदासी के भाव हैं।
दुकानदार भी मानते हैं कि अब मिक्सर, ग्राइंडर व विद्युत चलित आटा चक्कियों से आगे पत्थर की चक्की (जांता) सिलबट्टा, लोढ़ा आदि का महत्व ही कम हो गया है। दुकानदार लक्ष्मी देवी, राजकुमार, सूरत आदि ने बताया कि यह धंधा हमारा पुश्तैनी धंधा है। दादा, परदादा के जमाने से हम लोग पहाड़ों से पत्थर तोड़कर चक्की (जांता) सिलबट्टा, लोढ़ा आदि बनाकर मेला बाजार में बेचते आते हैं, अब इसकी बिक्री शहरों में तो बिल्कुल बंद है, ग्रामीण क्षेत्रों में बिक्री हो रही है लेकिन वह भी बहुत कम। ऐसे में इस पुश्तैनी धंधे से परिवार चलाना मुश्किल हो गया है। लगता है कि अब इस पुश्तैनी धंधे को छोड़कर मजदूरी करना पड़ेगा, तभी परिवार का भरण पोषण हो पाएगा।