जम्मू-कश्मीर में आतंकियों की नई रणनीति: घाटी में बदल रहा OGW का चेहरा

जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के समर्थक ओवर ग्राउंड वर्करों (ओजीडब्ल्यू) का चेहरा बदल रहा है। सफेदपोश लोग देश विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि सरकार की ओर से पिछले समय में इन आतंकियों और समर्थकों पर सख्त कार्रवाई की गई है।

संपत्ति कुर्क करने के साथ मकान तक जमींदोज किए गए। साथ ही घाटी में स्थानीय भर्ती भी कम हुई है। इससे बौखलाए आतंकी संगठनों ने रणनीति बदली है। इस कारण अब सफेदपोश आतंकवाद फैलाने के लिए दम तोड़ चुके स्लीपर सैल को छोड़ साफ छवि वाले लोगों में विचारधारा का जहर घोल जा रहा है।

पहले ऐसे नेटवर्क से जुड़ने का सबसे बड़ा कारण आर्थिक तंगी या मजबूरी माना जाता था जो अब नहीं है। पैसों को कम, विचारधारा को ज्यादा तव्वजो दी जा रही है। इस कारण आतंकी अच्छा वेतन पाने वाले शिक्षक, डॉक्टर यहां तक कि पुलिसकर्मियों को भी अपने संगठन का हिस्सा बनाकर देश विरोधी हमले करवा रहे हैं।

सरकारी तंत्र में शामिल नौकरशाह भी अपना रहे आतंक की राह

पूर्व कर्नल सुशील पठानिया बताते हैं कि ऑपरेशन टुपैक के बाद से पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के खिलाफ षड्यंत्र शुरू किया। 2019 के बाद हालात में सुधार होता गया। आतंकियों की भर्ती कम हुई, ओजीडब्ल्यू पर कार्रवाई हुई। कुछ साल में आतंकी संगठन व पाकिस्तान ने रणनीति बदली है।

पहले इस नेटवर्क में आतंकवाद से जुड़े लोग होते थे। सुरक्षा एजेंसियों ने पहचान कर धीरे-धीरे इनकी कमर तोड़ दी। अब ऐसे लोगों को शामिल किया जा रहा है जिनकी कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। यह लोग सरकारी तंत्र और सुरक्षा एजेंसियों में भी बैठे होते हैं।

इसमें पुलिसकर्मी, स्वास्थ्य कर्मी, शिक्षक और अब डॉक्टर भी शामिल हो रहे हैं जो समाज में आसानी से घुलमिल जाते हैं। इसलिए शक भी कम होता है। एजेंसियों को ऐसे लोगों की पहचान करने में ज्यादा मुश्किल आ रही है। सफेदपोश आतंकी नेटवर्क में शिक्षित और व्यवस्थित पृष्ठभूमि वाले लोगों का जाना चिंतनीय है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद सरकार ने ऐसे 80 कर्मचारियों को संदिग्ध आतंकी संबंध के कारण नौकरी से बर्खास्त किया है।

पहले सीमापार तक फैल चुका था ओजीडब्ल्यू का नेटवर्क

जम्मू-कश्मीर में ओजीडब्ल्यू के नेटवर्क का इतिहास आतंकवाद जितना ही पुराना है जो हमेशा आतंक के फलने-फूलने में मददगार रहा हैं। सरकार ने इस पर प्रहार तो किया लेकिन तब पूरे जम्मू-कश्मीर से लेकर सीमापार तक फैल चुका था। इसमें पूर्व आतंकियों की मौजूदगी ज्यादा रहती थी।

आतंक की राह छोड़कर सामान्य जीवन में आए स्थानीय किसी न किसी तरह ओजीडब्ल्यू के रूप में काम करते थे। गांवों की गलियां, शहर के मोहल्ले, सरकारी कार्यालय में मौजूदगी रहती थी। सरकार ने रखती शुरू कर ऐसे लोगों की पहचान की। उनकी संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखी और कठोर कार्रवाई की।

यहां हो रही अनदेखी… वीडीजी सदस्यों को और सशक्त बनाना काफी जरूरी

वीडीजी सदस्यों को सरकारों ने कभी मजबूत नहीं किया। ओजीडब्ल्यू के मुकाबले वीडीजी सदस्य उस तरह से सशक्त नहीं हो पाए। आज भी इनके पास थ्री नॉट राइफल है जबकि सरकार ने समय-समय पर एसएलआर और असाल्ट राइफल जैसे हथियार देने की घोषणा की है।

1995 में ग्रामीण क्षेत्रों में आतंकियों से लोहा लेने के लिए वीडीजी का गठन किया। इन्होंने डोडा, उधमपुर, रामबन, किश्तवाड़, रियासी, कठुआ और राजोरी-पुंछ में आतंकियों के सफाए में योगदान दिया। 2002 के बाद भूमिका को सीमित किया जाता रहा। 2022 में संगठनात्मक ढांचा बदला व नाम वीडीजी रखा गया। गृह मंत्रालय की 2022-23 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर में 4,153 वीडीजी सदस्य हैं।

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