आधी आबादी को समाज में पुरुषों के बराबर खड़ा करने के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की है। त्रि स्तरीय पंचायत चुनाव यानी गांव की सरकार, महिलाओं की राजनीति में हिस्सेदारी का पहला पायदान है लेकिन इसी पायदान पर महिलाओं को पुरुष प्रधान समाज आज भी स्वीकारोक्ति नहीं देता। मसलन जिले के तकरीबन सभी ब्लाक में नजदीक से देखे तो महिला प्रत्याशी सिर्फ जिला निर्वाचन आयोग के कार्यालय में दाखिल नामांकन पत्र में ही प्रत्याशी हैं, बैनर-पोस्टर और चुनाव प्रचार में सिर्फ उनके बेटे, देवर, पति, भसुर, पिता और ससुर का ही नाम है। और अब बात इससे भी आगे निकल चुकी है, अनुसूचित महिला, पिछड़ी महिला प्रत्याशियों की सीटों पर बकायदा पिछली और सामान्य वर्ग के लोग पूरी निर्लज्जता के साथ स्वयं चुनाव लड़ रहे हैं। या यूं कहें कि पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए आरक्षित पदों पर पीछे के दरवाजे से पुरुषों ने कब्जा कर रखा है।
जागरूक मतदाता चुनाव में सबक सिखाएं
कवियित्री एवं हेरिटेज फाउंडेशन की संरक्षिका एडवोकेट अनीता अग्रवाल कहती हैं कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण सरकार ने दिया है। लेकिन खोराबार, सहजनवा, कैम्पियरगंज , बड़हलगंज समेत कई ब्लाक का अध्ययन किया तो आज भी स्थितियां ज्यादा नहीं बदली हैं। कोई ससुर अपनी बहु को प्रधान बनाना चाहता है लेकिन फोटो प्रचार के लिए पम्फलेट पर प्रकाशित करने से परहेज है। अनुसूचित जाति महिला प्रत्याशी की सीट पर पिछली जाति के पुरुष अपना नाम और चुनाव चिन्ह लगा कर चुनाव प्रचार कर रहे। जागरूक मतदाताओं को ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए पहल करनी चाहिए।
सिंबल में भी लिंग भेद
महिला समानात के क्षेत्र में काम करने वाले मनीष कहते तो निर्वांचन आयोग को ही कटघरे में खड़ा करते हैं। कहते हैं अनाज ओसाता हुआ किसान, निर्वांचन आयोग का चुनाव चिन्ह है, क्या महिलाएं किसानी नहीं करती हैं? यदि करती है तो उस चिन्ह में सिर्फ अकेले किसान की फोटो ही क्यों है? निर्वांचन आयोग को लिंग भेद करने का यह अधिकार किसने दिया? मनीष ने सोशल मीडिया पर इस बाबत एक वीडियो भी अपलोड किया है। कहते हैं कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर तमाम ऐसी महिला उम्मीदवार हैं जो चुनाव तो लड़ रहीं हैं, लेकिन उनके प्रचार प्रसार का सारा काम पति, जेठ, देवर, ससुर या कोई अन्य देख रहा है।