40 Days Festival: ब्रज में आकर ठहर जाते वसंत और फागुन के कदम

यह एक दो दिन नहीं पूरा चालीस दिन का महोत्सव है। यहां के वन बाग उपवन और वाटिकाओं वसंत की अरघान है। फागुन भी यहां आकर ठहर सा जाता है। कैसा ये देश निगोड़ा, जगत होरी ब्रज होरा। ब्रज में वसंत आते ही महक ही कुछ ऐसी उठती है30_01_2017-vasant कि फागुन के भी कदम ठिठक जाते हैं। यहां गुलाल बिखरने लगता है। फागुन उत्सव के दौरान ब्रज की गोपियों का राज रहता है। ब्रज की होरी नारी सशक्तीकरण की भी मिसाल मानी जाती है, तभी ब्रजाचार्य श्रील नारायण भट्ट के वंशज हरिगोपाल भट्ट ने कहा है-

अनुपम होरी होत है यहां लठ्ठों की सरनाम,

अबला सबला सी लगे यूं बरसाने की वाम।

लधरे कंधा फिरे, जबई भगावे ग्वाल, जिम महिषासुर मर्दिनी रण में चलती चाल।

ब्रजाचार्य पीठ के प्रवक्ता गोस्वामी घनश्याम राज भट्ट कहते हैं यह महीना दिनों की गिनती में तो तीस दिन का ही होता है, लेकिन ब्रज में फाग चालीस दिन खेला जाता है। वसंत पंचमी से इसकी शुरुआत हो जाती है। इस दिन बांके बिहारी के गाल पर गुलाल के साथ ही फाग खेलने की शुरुआत होगी। इसके साथ ही इस इलाके की रंगत बदल जाती है। रिश्ते-नातों से लेकर मंदिर-गलियां तक सब कुछ गुलाबी। वसंत पंचमी के दिन ब्रज के अनेक मंदिरों में ठाकुरजी को गुलाल लगाकर होली का ढांड़ा गाड़ा जाता है। फिर धूल की होली के एक दिन बाद दाऊजी के हुरंगे की उक्ति ढप धर दै यार गई पर की के साथ समापन होता है।

लाडिली मंदिर के सेवायत श्याम लाल गोस्वामी बताते हैं कि बरसाना के लाडलीजी मंदिर सहित तमाम मंदिरों में फाग के पदों का समाज गायन शुरू होता है। होली का आगाज बरसाना की विश्व प्रसिद्ध लठामार होली से होता है, उसके अगले दिल नंदगांव की होली होती है। इसके बाद मथुरा-वृंदावन, गोकुल, महावन, जाव, सुरवारी, फालैन, जटवारी सहित समूचा ब्रज मंडल अबीर, गुलाब और रंग में सराबोर नजर आता है। ब्रज में फागुन में नारी के स्थान को इससे समझें। गोपियां गाती हैं सखि भागन ते फागन आयौ। ब्रज संस्कृति के जानकार भरत सिंह एडवोकेट कहते हैं कि असल में फाल्गुन ब्रज का मदनोत्सव और अनुराग पर्व है।

राधाकृष्ण के अलौकिक प्रेम की झलक आज भी ब्रज की होली में मिलती है। इसे बरसाना और नंदगांव के हुरियारे और हुरियारिनों के बीच के संवादों में साफ देखा जा सकता है। बरसाना की हुरियारिनें राधा और उनकी सखियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, तो नंदगांव के हुरियारे कृष्ण और उनके सखा का। फाल्गुन में रस और रंग से सराबोर यही दृश्य चालीस दिन तक ब्रज में देखने को मिलते हैं। अगर कोई तर्क की बात करे तो सुनने को मिलेगा-‘ज्ञानी, गुमानी, धनी जाओ रै यहां से, यहां तो राज है बावरे ठाकुर को।’

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