भले ही यूपी विधानसभा चुनाव हुए अभी बमुश्किल एक ही महीना बीता हो लेकिन जिस तरह गैर भाजपा सियासी दलों की सक्रियता और भविष्य के समीकरणों को दुरुस्त करने की कोशिशें शुरू हुई हैं, उससे इनकी बेचैनी समझी जा सकती है।बसपा सुप्रीमो मायावती का अपने राजनीतिक जीवन में संभवत: पहली बार भविष्य के लिए किसी से भी गठजोड़ की बात कहना इसी बेचैनी का प्रमाण है। सपा तो पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुकी थी।
सपा के मुखिया अखिलेश यादव चुनाव के दौरान ही कांग्रेस से हाथ मिलाकर और नतीजों से ठीक एक दिन पहले सरकार बनाने के लिए बसपा का साथ लेने से भी गुरेज न करने का संकेत देकर साफ कर चुके थे कि वह सियासी सच्चाई समझ चुके हैं।इसलिए पुरानी दुश्मनी भुलाकर बसपा से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। शनिवार को उन्होंने मायावती की बात का स्वागत कर और सकारात्मक रुख दिखाकर भाजपा विरोधी दलों की इस सियासी छटपटाहट को और पुख्ता कर दिया।
दरअसल, पहले लोकसभा और अब विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली बढ़त ने सपा, बसपा और कांग्रेस सहित सभी के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है।इन सभी दलों को कहीं न कहीं इस बात का एहसास हो गया है कि वे अकेले अपने दम पर फिलहाल भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति इन दलों के सामने खड़ी दिखाई देती है जो कभी कांग्रेस के खिलाफ भाजपा सहित अन्य विरोधी दलों की हुआ करती थी। तब कांग्रेस से मुकाबले के लिए गठबंधन की राजनीति ने जन्म लिया था।
अब भाजपा की बढ़त को रोकने के लिए सपा, बसपा और कांग्रेस को गठबंधन की जरूरत महसूस होने लगी है। इसी स्थिति के कारण मायावती, जो बीते दो दशकों में गठबंधन की बात चलते ही उससे इन्कार करने में जुट जाती थी, अब खुलकर यह कहने को मजबूर हो गईं कि भाजपा के खिलाफ किसी से भी गठजोड़ करने में उन्हें परहेज नहीं है।
विधानसभा चुनाव में भी सपा, बसपा व कांग्रेस के कुल वोटों का प्रतिशत 48.32 प्रतिशत रहा है जबकि भाजपा को अपना दल व भारतीय समाज पार्टी सहित 41.4 प्रतिशत वोट हासिल हुए और 325 सीटें मिलीं।जाहिर है कि लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का, दोनों में भाजपा गठबंधन को मिले वोट का प्रतिशत विरोधी दलों को मिले संयुक्त वोटों के प्रतिशत से कम रहा है। इसीलिए भाजपा विरोधी दलों को लग रहा है कि वे गठबंधन करके ही भाजपा को आगे बढ़ने से रोक सकते हैं।
भाजपा विरोधी दलों के रणनीतिकारों को शायद इस बात का एहसास हो रहा है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिले वोटों में बहुत बदलाव न होने का मतलब साफ है कि मतदाताओं का रुख बहुत बदल नहीं रहा है।ऐसी स्थिति में अब अगर वे अलग-अलग रहे तो 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी कमोबेश नतीजे ऐसे ही रहने वाले हैं जैसे 2014 में रहे थे। ऐसा हुआ तो इनके अस्तित्व को संकट और बढ़ सकता है।शायद इस निष्कर्ष ने भी भाजपा विरोधी दलों को हाथ मिलाने के लिए सोचने को मजबूर कर दिया है।