क्यों दबे रह जाते हैं गंभीर पर्यावरणीय अपराध

भारत में पर्यावरण के हाल का सबसे विस्तृत ब्यौरा देने वाली स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट (एसओई) रिपोर्ट के मुताबिक पर्यावरण से जुड़े 50 हजार से ज्यादा मामले अदालतो में लंबित हैं. फैसलों में देरी का असर पर्यावरण पर पड़ता है.रिपोर्ट में आधिकारिक आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि अदालतों में आने वाले नए मामलों की तुलना में मामलों को निपटाने की दर बहुत कम है. और इससे लंबित मामलों का ढेर ऊंचा होता जा रहा है.

2019 में पर्यावरण से जुड़े करीब 35 हजार अपराध दर्ज किए गए थे. सात हजार से ज्यादा मामलों की पुलिस जांच चल रही है और करीब 50 हजार मामले अदालत में सुनवाई पूरी होने और फैसले का इंतजार कर रहे हैं. पर्यावरण से जुड़े विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि जिस रफ्तार से पर्यावरणीय अपराध बढ़ रहे हैं, उनकी सुनवाई और निपटारों की प्रक्रिया सुस्त और बोझिल है.

पर्यावरण की प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) और विज्ञान और पर्यावरण की उसकी पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ मिलकर हर साल यह स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट (एसओई) रिपोर्ट तैयार करते हैं. अभी तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश में 2019 और 2020 के बीच वन्यजीव अपराधों की संख्या में गिरावट आई थी. इसके बावजूद भारत में हर रोज दो मामले दर्ज किए जाते हैं. कुल वन्यजीव अपराधों के 77 प्रतिशत मामले उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में दर्ज किए गए. जिन राज्यों में ऐसे अपराध बढ़े उनमें गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्य भी बताए जाते हैं. मामलों की कछुआ चाल पर डाउन टू अर्थ का कहना है, “एक साल में मौजूदा बैकलॉग खत्म करने के लिए अदालतों को हर रोज 137 मामले निपटाने होंगे.” अदालतों पर दबाव का आलम यह है कि 2019 में औसतन करीब 85 मामले निपटाए जा सके थे. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों को निपटाने में अदालतों को 20 साल से ज्यादा समय लग सकता है. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के मामलों के लिए 13 साल चाहिए. अगर थोड़ा पीछे जाएं तो इस निराशाजनक सिलसिले का पता चलता है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) का डाटा बताता है कि 2016 और 2017 के बीच पर्यावरणीय अपराधों में आठ गुना वृद्धि हुई थी. एनसीआरबी के अपराध डाटा के मुताबिक 2016 मे पुलिस ने 4,732 पर्यावरणीय अपराध दर्ज किए थे. 2017 में ये मामले बढ़कर 42,143 हो गए. करीब 30 हजार मामले तो तंबाकू कानून के थे. उसकी तुलना में वायु और जल प्रदूषण के 36 मामले ही दर्ज हो पाए. जबकि एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में ही है. ध्वनि प्रदूषण की नई श्रेणी के तहत पुलिस ने 8,400 मामले दर्ज किए. पुलिस ने अगर अन्य कानूनों के तहत अपराध दर्ज भी किए हैं तो वे जंगलों में रहने वाली जनजातियों और आदिवासियों पर ही अधिक हैं.

वन अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत 3,842 मामले दर्ज हुए थे. अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि अगर जंगलों, संरक्षित वनों, अभ्यारण्यों और आरक्षित क्षेत्रों में अवैध कटान, अवैध खनन, अवैध निर्माण, अवैध शिकार, वन उत्पाद और जानवरों के अंगों की तस्करी आदि गैरकानूनी और अपराध माना जाता है, तो फिर कुदरती लैंडस्केप और पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अत्यंत नाजुक तानेबाने को छिन्नभिन्न करने वाले और कई संवेदनशील प्राकृतिक हलचलों को ट्रिगर कर देने वाले कथित निर्माण को क्या कहेंगे. विकास के लिए कुछ समझौते करने पड़ते हैं या कुछ कीमत चुकानी होती है जैसी दलीलें उस कोप से नहीं बचा सकती हैं जो प्रकृति अपने भीतर दबाए रहती है और रह रह कर उसे हमारी ओर फेंकती रहती है.

विकास के पक्षधर कह सकते हैं कि अगर इसे अपराध कह देंगे तो फिर देश कैसे तरक्की करेगा. लेकिन बुनियादी चिंताओं की अनदेखी एक किस्म का नैतिक अपराध तो है ही. पर्यावरणीय नैतिकता या पर्यावरणीय आचार की हिफाजत भी कोई कोरी या खोखली बातें नहीं हैं, उनके वास्तविक अर्थ हैं. विकास कही जाने वाली वो चीज आखिर किस कीमत पर हासिल होती है, यह छिपी बात नहीं हैं. कुदरती तबाहियों से हम जानते हैं,

इसीलिए बात सिर्फ शहरों के प्रदूषण, गंदगी और कूड़े के ढेर, वाहनों के शोर, हाईजीन, पेयजल, सैनिटेशन, सीवेज आदि की नहीं है, बात पहाड़ों, नदियों, जंगलों और उनके जीव-जंतुओं और वनस्पतियों और जंगल में रहने वाली जनजातियों और आदिवासी समुदायों के अस्तित्व की भी है. इसीलिए अनापशनाप विकास की होड़ के बीच बार बार समावेशी विकास पर जोर देने की बात की जाती रही है. जानकारों का कहना है कि अंततः उसी से सतत और टिकाऊ विकास संभव है. सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर अपनी टिप्पणियों और फैसलों के जरिए इस बारे में आगाह कराता रहा है. पेड़ों को बचाने के ऐतिहासिक चिपको आंदोलन के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के रैणी गांव के पास छोटी नदियों पर जलबिजली परियोजनाओं का निर्माण हो चुका था, हो रहा था.

लेकिन पिछले दिनों वहां आया जल प्रलय क्या सिर्फ कुदरती कोप कहकर टाल दिया जाएगा या उस परिघटना के मूल कारणों की तलाश करते हुए यह देखा जाएगा कि वह आपदा मानव निर्मित भी हो सकती है और एक तरह का अपराध ही है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाता. केदारनाथ हादसा हो या भूस्खलन की घटना या बाढ़ या भूकंप. बेशक कुदरत की यह कभी स्वाभाविक कभी अस्वाभाविक करवटें हैं, लेकिन इस अस्वाभाविकता को भड़काने वाले फैक्टरों की जांच भी तो आखिर की जानी चाहिए.

इसके अलावा पर्यावरणीय अपराध का मुकम्मल डाटा हासिल करने के लिए सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और तमाम पर्यावरणीय नियामक संस्थाओं का सोर्स डाटा भी लिया जाना चाहिए. विशेषज्ञों के मुताबिक एनसीआरबी के पास इतने कम पर्यावरणीय अपराधों का डाटा इसलिए हैं क्योंकि वह सिर्फ आपराधिक मामलों को दर्ज करता है, जबकि पर्यावरण से जुड़े कई मामले सिविल प्रकृति के होते हैं. संयुक्त राष्ट्र कह चुका है कि पर्यावरणीय अपराध सतत विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने की क्षमता रखते हैं

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